Book Title: Nay Darpan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Premkumari Smarak Jain Granthmala

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Page 719
________________ ६६२ २०. विशुध्न अध्यात्म नय १ विशुध्द अध्यात्म ___परिचय गए अखण्ड तत्व को ही द्रव्य कहना न्याय है । इस दृष्टि मे जीव को मनुष्य व तिर्यञ्च आदि कहना अथवा ससारी या मुक्त आदि कहना सम्भव नही । जीव त्रिकाली जीव ही है इससे अतिरिक्त कुछ नही । वही निर्विकल्प द्रव्य यहा अभेद ग्राही निश्चय नय का विषय ___ गुण शब्द भी यहां पर्याय के प्रति सकेत नही करता बल्कि त्रिकाल एक सामान्य भाव को ही ग्रहण करता है । 'जान' ज्ञान ही है मति जान व केवल ज्ञान नहीं । जान कभी हीन या अधिक भी नही होता 'ज्ञान' ज्ञान को ही जानता है। ज्ञेय को जानता है ऐसा कहना भी युक्त नही । ऐसा निर्विकल्प गुण सामान्य ही निविकल्प द्रव्य का लक्षण बनाया जा सकता है । अत व्यवहार नय मे गुण गुणी भेद ही यहा ग्रहण किया जाता है, पर्याय पर्यायी भेद नही । ___ पहले वाली अध्यात्म पद्धति स्थूल है क्योकि वहां की असद्भूत व्यवहार नय भिन्न सत्ताधारी द्रव्यो मे स्व व पर का विवेक उत्पन्न कराती है । पर यह सूक्ष्म दृष्टि एक ही पदार्थ के दो भिन्न भावों मे स्व व पर का विवेक कराती है। वहा द्रव्यो की पृथकता संग्रह व व्यवहार नय का विषय है और यहा दो भावो की पृथकता ऋजसूत्र 'नय का विषय है । यह दृष्टि पदार्थ के अपने अन्दर पड़ी उस सूक्ष्म सन्धि को देखती है जो लौकिक स्थल दृष्टि में आनी असम्भव है । प्रज्ञाक्षेनी के द्वारा ही उस सूक्ष्म सन्धि का साक्षात्कार किया जा सकता है। पद्यार्थ के स्वभाव अर्थात पारिणामिक भाव को लक्ष्य मे लेकर पदार्थ का विचार करने पर ही यह रहस्य समझा जा सकता है, उसकी शुद्ध व अशुद्ध व्यञ्जन पर्यायो को लक्ष्य मे लेने से नही । अतः विशुद्ध अध्यात्म का परिचय पाने के लिये अत्यन्त स्थिर दृष्टि

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