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१० नेगम नय
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- ५. पर्याय नैगम नय
२. धापू ६ ।।१८१।२ "न एकगमो नैगम इति न्यायात् शुद्धाशुद्ध
पर्यायार्थिकनय द्वयविषय. पर्यायार्थिक नैगम.।"
अर्थ:- जो एक को विषय न करे अर्थात भेद व अभेद दोनो को
विषय करे वह नैगम नय है । इस न्यायसे जो शुद्ध पर्याययार्थिक नय व अशुद्ध पर्यायार्थिक नय इन दोनो के विषय को ग्रहण करने वाला हो वह पर्यायार्थिक नैगम है।
३. रा वा हि ।१।३३। १६८ "पर्यायो मे विशेपण भाव को
गौण तथा विशेष्य भाब को मुख्य करके पर्याय को विशेषण रूप सकल्प करना।"
इस प्रकार लक्षण व उद्धरण का कथन हो चुकने के पश्चात अव इस के कारण व प्रयोजन विचारिये । पर्याय पर से पर्याय का सकल्प करने के कारण पर्याय नय है । द्वेत मे लक्षण लक्ष्य भाव रूप अद्वैत का ग्रहण करने के कारण नैगम है । अथवा वस्तु की तरफ न देख कर इसका व्यापार मात्र ज्ञान के आकार मे हो रहा है, अर्थात सकल्प द्वारा ज्ञान के आकारो मे ही उपरोक्त द्वैत का ग्रहण किया जा रहा है । इसलिये भी इसे नैगम कहा गया है, क्योकि नैगम नय का व्यापार ज्ञान में ही होता है वस्तु मे नही। अतः इसका ‘पर्याय नैगम नय' ऐसा नाम सार्थक है । यह इसका कारण है । तथा दृष्ट व परिचित पर्याय के आधार पर किसी पर्याय के अद्दष्ट स्वभाव का परिचय देना इसका प्रयोजन है ।
२ अर्थ पर्याय नैगम नय
इसका विशेष विस्तार करने की आवश्यकता नही क्योकि पर्याय नैगम सामान्य के लक्षण पर से ही वह जाना जा सकता है। यहा विशेषता केवल इतनी है कि विशेषण रूप से ग्रहण की गई पर्याय भी अर्थ पर्याय या गुण पर्याय होनी चाहिये और विशेष्य रूप से