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१५ शब्दादि तीन नय
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समभिरू नय का
लक्षण
और शचीपति मे भेद होने पर भी नगरों का नाश करने की क्रिया न करने के समय भी पुरन्दर शब्द इन्द्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है, परन्तु एवभूत की अपेक्षा नगरो का नाश करते समय ही इन्द्र को पुरन्दर नाम से कहा जा सकता है ।
वास्तव मे इन्द्र शब्द के कहने से इन्द्र शब्द का वाच्य परम ऐश्वर्य इन्द्र मे ही मिल सकता है । जिसमे परम ऐश्वर्यं नही है उसे केवल उपचार से ही इन्द्र कहा
जा सकता ।
४ रा वा ।४।४२ ।१७ ।२६१ । १२ " समभिरू दे वा प्रवृत्ति निमित्तस्य अप्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् ।”
अर्थ - समभिरूढ नय में घटन क्रिया में परिणत या अपरिणत अभिन्न ही घट का निरूपण होता है ।
३. लक्षण नं ० ३ (एक शब्द का एक ही प्रसिद्ध अर्थ )
ससि । १३२ । ५३६ " नानार्थ समभिरोहणात्समभिरूढ । यतो
नानार्थान्समतीत्यैकमर्थमभिमुख्येन रूढ़ समभिरूढ । गौरित्यय शब्दो वागादिष्वर्थेषु वर्तमान पशावभिरूढ ।"
अर्थ - नाना अर्थो का समभिरोहण करने वाला होने से समभिरूढ नय कहलाता है । चूँकि जो नाना अर्थो को 'सम' अर्थात छोड कर प्रधानता से एक मे रूढ होता है वह समभिरूढ नय है उदाहरणार्थ - 'गो' इस शब्द के वाणी, पृथिवी आदि ग्यारह अर्थ पाये जाते है, तो भी वह एक पशु विशेष के अर्थ मे रूढ़ होता है |