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१८. निश्चय नय
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३. निश्चय नय सामान्य
का लक्षण
(अर्थ:-जिस प्रकार एक सत् को जिस किस प्रकार से दो रूप
करना व्यवहार नय का लक्षण है, उसी प्रकार उस व्यवहार नय से विपरीत अर्थात एक सत् को दो रूप न करना निश्चय नय का लक्षण है।
७. का.अ.।३११-३१२१प जयचन्द "अभेद धर्म को प्रधानता से
निश्चय का विषय कहते है।"
लक्षण नं २ के उदाहरण
जैसे कि निम्न उदाहरणो मे जीव तथा उसके गुण पर्यायो को
एकमेक करके दर्शाया है।
१ स सा । मू । २७७ आत्मा खल मम् ज्ञानात्मा मे दर्शन
चारित्र च । आत्मा प्रत्याख्यानं आत्मा मे सवरो योग. २७७ ।"
(अर्था.-निश्चय कर मेरा आत्मा ही ज्ञान है, मेरा आत्मा ही
दर्शन व चारित्र है। मेरा आत्मा ही प्रत्याख्यान है और मेरा आत्मा ही सवर और योग है, ऐसा निश्चय नय
कहता है । २.पं. का । ता. वृ ।२७।५७।१ शुद्धनिश्चयनयेनामूर्त (जीव)धर्मा
धर्माकाशकालद्रव्याणि चामूर्तीनि।" अर्थः-शुद्ध निश्चय नय से जीव भी अमूर्त है और धर्म अधर्म
आकाश व काल ये चारो भी अमूर्त है।
३.प का. ता वृ ।२७।६० "निश्चयेन केवलज्ञानदर्शनरूपशुद्धो
पयोगे न युक्त त्वादुपयोग विशेषतो भवति ।"