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१६. घ्यवहार
नय
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( अर्थ -- अनुपचरित असद्भूत व्यवहार के द्रव्य कर्म व नो कर्म से रहित है।
१३. अनुपचरित प्रसद्भूत व्यवहार नय
सम्बन्ध से जीव
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भावार्थ - यहा यह भ्रम उत्पन्न न करना कि कर्मो का संयोग तो ठीक इस नय का विषय बन सकता है, पर उस से रहित शुद्ध जीव तो शुद्ध निश्चय का विषय है । उस को कैसे इस नय का विषय बनाया जा सकता है ? यद्यपि स्थूलत: देखने मे तो ऐसा ही प्रतीत होता है, पर वास्तव में ऐसा नही है । नय तो अपेक्षा को कहते है । अपेक्षा तो दोनों प्रकार से की जा सकती है - सम्बन्ध के सद्भाव की तथा सम्बन्ध के अभाव की । यहा सम्बन्ध के अभाव की अपेक्षा लेकर जीव को इस नय का विषय बनाया गया है । यहा वास्तव मे जीव द्रव्य को मुख्यता ग्रहण न करके कर्मों के अभाव की मुख्यता है । कर्मों से निरपेक्ष पारिणामिक भाव के साथ तन्मय दिखाया होता अथवा कर्मो के अभाव की बात न कह कर केवल ज्ञानादि क्षायिक भावों से तन्मय दिखाया होता तो शुद्ध निश्चय का विषय बन जाता है, परन्तु यहा तो कर्मों के अभाव को जीव का स्वभाव दर्शाने की बात है, जो स्पष्टत उपचार दिखाई दे रहा है, क्योंकि जिसमे कर्मों के सद्भाव की अपेक्षा नही वहाँ कर्मों के अभाव की अपेक्षा भी कैसे की जा सकती है ।
४ प प्र । टी १। ६।३१ । 'द्रव्य कर्म दतनम अनुपचरितासद्भूत व्यवहारनयेन ।
( अर्थ - - द्रव्य कर्म का दहन कहना अनुपचरित असद्भुत व्यवहार नय से ठीक है । ( उपरोक्त प्रकार ही यहा भी समझना ) | )
६ प. प्र । टी. ।१४ । २३ । १६ “ अनुपचरिता सद्भूतयवहारनयेन देहादिन ( आत्मा । " )