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१८ निश्चय नय
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१. अध्यात्म पद्धति
परिचय
इन दोनो प्रकार के चारित्रो मे से अन्तरङ्ग चारित्र ही प्रधान है, क्योकि वह ही वास्तव मे बाह्य चारित्र का कारण है । अन्तरंग मे वैराग्य होने पर धारा गया ही वाह्य चारित्र कार्य कारी है। अन्तरङ्ग के वैराग्य का आधार विचारणाये है और विचारणाओं का आधार ज्ञान है । ज्ञान मे तो सब कुछ स्वीकार है । प्रश्न उठता है कि क्या विचारणा उस जाने हुए वस्तु स्वरूप जिस किसी भी अग के सम्बन्ध में कर लेने से काम चल जायेगा ? नही ऐसा नहीं है । ज्ञान तो प्रमाण है, वह तो अखण्ड है, अखण्ड वस्तु के अनुरूप है, इसलिये वह तो अनेकान्त रूप है । परन्तु विचारणा क्षणिक विकल्प है, वह नय रूप है, एक खण्ड रूप है, पूर्ण वस्तु के अनुरूप नही, इसलिये वह एकान्त है । अनेकान्त जाना जा सकता है पर विचारा नही जा सकता । साधना पूर्ण हो जाने पर तो विचारणा, ज्ञान के साथ घुल मिल कर एक हो जाती है, अतः तब तो यह प्रश्न ही नही हो सकता कि क्या विचारा जाये । वहा तो अखण्ड वस्तु ही मानो विचारणा का विषय बन चुका है। पर साधना की अल्प अवस्था में ऐसा होना सम्भव नही है । तव कैसे साधना प्रारम्भ करे ?
इसी प्रयोजन की सिद्धि के अर्थ हम' उस पूर्ण ज्ञान के खण्डो को दो भागों में विभाजित करना होगा-एक राग प्रवर्धक अग और दूसरे राग प्रशामक अग। वास्तव मे ज्ञान के वे अग तो राग प्रवर्धक है न प्रशामक, मेरे अपने विकल्य ही राग प्रवर्धक या प्रशामक है । अत कारण मे कार्य का उपचार करके यहा उन अगो को राग प्रवर्धक कहा जा रहा है। जिन के आश्रय पर उठने वाली विचारणाये अधिक चचल व पर वस्तु के ग्रहण त्याग रूप होने लगे । और उन अगो को राग द्रशामक कहा जा रहा है जिन के आश्रय पर उठने वाली विचारणाओ की चचलता मद पड़ जाये और वह बाहर से हठ कर अन्दर की ओर अधिकाधिक झुकने लगे । बस इन दोनों ही अगो का नाम यहा इस अध्यात्म पद्धति मे व्यवहार व निश्चय नय है।