Book Title: Navpad Prakaranam
Author(s): Jinendrasuri, 
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala

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Page 290
________________ नवपदवृत्ति: मू. देव. वृ. यशो ।।२६७।। मए नियसुया तुज्झं पियपणइणी होही ॥ २८ ॥ अब्भुवगया य सा तेण जाव नीया य वासभवणंमि । सुत्तो य तीऍ फासं वेयइ करवत्तफासं व ।। २९।। चइऊण तं गओ सो तच्चेडीए पसाहियं पिउणो । आसासिया य तेणं भणिया वच्छे ऽन्नजम्मंमि ॥ ३०॥ दोहग्गकारणं किंपि दारुणं जं तए कयं कम्मं । तस्स फलमेयमुवणयमओ तुमं परिहर विसायं ॥ ३१|| कुण निच्चमेव दाणाई धम्ममागामिएऽवि जेण भवे । होसि न अपारदुक्खोहहेउदोहग्गकुलभवणं ||३२|| तप्पभिइ दाणपराऍ अन्नया साहुणीओ तीऍ गिहं । गोवालिसीसिणीओ समागया भिक्खकज्जेणं ||३३|| ताओ पडिलाभित्ता वेरग्गगया य पुच्छई पच्छा। ठाणाइ ताहिं कहिए गया य रयणीइ तट्ठाणं ||३४|| दिट्ठा महत्तरा वंदिया य तीएवि साहिओ धम्मो । पडिबुद्धा पडिवण्णाऽणगारधम्मं असढभावा ।। ३५।। अण्णंमि दिणे गोवालमयहरिं भणइ वंदिऊणेसा । तुमएऽणुण्णायाहं छटुं छद्वेण चिट्ठामि ॥ ३६ ॥ चंपाऍ पुरीऍ बहिं सुभुमिभागस्सऽदूरसामंते । सूराभिमुहाऽऽयावणनिरया गुरुकम्मखयऊ ||३७|| मयहरियाए भणियं नेयं अज्जाण विहियमिह किंतु । जइ तुह इच्छा ता निययउवस्सयस्यैव मज्झ गया || ३८ || आयावसु जहसत्तीऍ तीए सम्मं न सद्दहियमेयं । कुणइ य जहाभिरुइयं सा तीए निवारियावि दढं ||३९|| अह अन्नया कयाई सुभूमिभागंमि केऽवि पंच जणा । दिट्ठा गणियाए समं ललमाणा देवदत्ताए ॥ ४० ॥ अवि य- एगो धरेइ छत्तं एगो विरएइ चामरुक्खेवं । एगो य पुप्फपूरं | सिरंमि तीसे कुणइ रुरं ॥ ४१ ॥ एगो धोयइ पाए उच्छंगगयं धरेइ एगो तं । देविव्व दिव्वलीलाय सा ठिया तीए सच्चविया ॥४२॥ तं दठ्ठे सा चितइ धन्ना एसा पुरा विहियसुकया। सेविज्जइ जा एवं बहुचाडुरएहिं पुरिसेहिं ॥ ४३ ॥ मज्झं इमस्स सुचरियतवस्स जइ अत्थि किंपि फलमहुणा । ता एवमण्णजम्मे होहं पंचण्हं दइयाऽहं ॥ ४४ ॥ एवं विहियनियाणा कम्मोदयओ सरीरबाउसिया । चिट्ठित्तु कंपि कालं मया गया बीयकप्पंमि ।।४५।। देवी नवपलियाऊ होउं तत्तो चुया ठिइखएणं। पंचालजणवएसुं कंपिल्लपुरंमि नयरंमि ||४६ || दुवयनरिंदस्स सुया चुलणीदइयाए गब्भसंभूया । जाया विसिट्ठरूवाइसंपया दोवई नामं ॥ ४७ ॥ तीसे सयंवरामंडवो य काराविओ विभूईए । मिलिया अणेगकोडी तत्थ नरिंदाण विविहाणं ॥ ४८ ॥ सा पंडवाण मंचं संपत्ताण अह सयंवरे तंमि । पत्थस्स गले खिविडं उक्खित्ता तीए वरमाला ||४९ || पडुपवणवसेणेसा पडिया पंचण्ह पंडुपुत्ताणं । उवरिं च समुग्घुट्टं, सरेहि पंचण्ह भज्जेसा ॥ ५० ॥ वित्तंमि विवाहमहूसवंमि ते पंडवा विभूईए। संमाणिय दुवएणं संपत्ता हत्थिणागपुरं ॥ ५१॥ सा दोवईवि तेसिं पंचहं निययजीवियाओवि । अइवल्लहाण भुंजइ तेहि समं तत्थ विसयसुहं ॥ ५२ ॥ एवं वच्चंतेसुं दिणेसु कइसुवि समागओ तत्थ । गगणंगणमग्गेणं ४ ॥ २६७।। कलहपिओ नारओ सहसा ॥ ५३ ॥ न य दिट्ठो सो इंतो विभूसणाहरणवावडमणाए । दुवयतणयाएं कुविओ गओ य अह धायईखंड || ५४॥ तत्थविय For Personal & Private Use Only Jain Educatimational www.prary.org

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