Book Title: Navpad Prakaranam
Author(s): Jinendrasuri, 
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala

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Page 292
________________ नवपदवृत्तिःमू.देव. व. यशो ॥२६९॥ 88086880062 विण्हू संगरभूमीए पूरए संखं । सद्देण तस्स टलियं किंपि बलं पउमनाहस्स ।।८।। तो आरोवइ चावं टंकारेणं इमस्स संखुहियं । सेसंपि बलं भग्गं तो नट्ठो पउमनाहोऽवि ।।८२।। पविसित्तु अवरकंकं धणकणजवसिंधणाइसंपुण्णं । रोहगसज्जं नाउं ठिओ इओ वासुदेवोऽवि ।।८३।। तो नारसिंहरूवं काऊणं पायदद्दरसरेणं । पाडेइ अवरकंकं सगोउरट्टालपायारं ।।८४॥ तो भयभीओ सरणं समागओ दोवईए पउमनिवो । तीयवि भणियं सरणं उवेहि तं इत्थिरूवेणं ।।८५।। मं पुरओ काऊणं हरिस्स तं चिय करेइ सो तत्थो । गहिऊण दोवई अह हरीवि वियरेइ से अभयं ।।८६।। एवं कयकिच्चो पंडवाण समप्पिऊण नियभइणि । जंबुद्दीवाभिमुहं तहेव चलिओ छहिं रहेहिं ।।८७।। इओ य-धायइसंडपुरस्थिम भरहद्धे चंपनयरिवत्थव्वो । तत्थासि वासुदेवो कविलो नामेण विक्खाओ ।।८८॥ मुणिसुब्बओ य अरहा समोसढो तइय तस्स नयरीए । पवरम्मि पुनभदंमि चेइए जइजणसमेओ ।।८९।। सो कविलवासुदेवो सुणमाणो तस्स अंतिए धम्मं । सुणिउं कण्हाबूरियसंखधणि पुच्छइ जिणिदं ॥९०॥ भयवं ! क एस संखं आवूरइ ? तो जिणो भणइ भद्द ! । जंबुद्दीवगभरहद्धसामिओ वासुदेवोऽयं ।।९१।। पत्तो इहई सेवइकडंमि सिरिपउमनाहरायाणं । जिणिउं गहिउं च तयं चलिओ सट्टाणमेत्ताहे ।।९२।। हरिसेण पंचजन्नं वायंतो लवणजलहिमणुपत्तो । भणइ जिणं तो कविलो जइ एवं जाति तं द8 ।।९३॥ कयपूयं व विसज्जिय भूओऽवि समागमिस्समिह अहयं । तो बेइ जिणो उत्तिमपुरिसाण न होइ मेलावो ॥९४।। जओ-तित्थयर चक्कवट्टी बलदेवो तह य वासुदेवा य । एए सुमहापुरिसा न परोप्पर दंसणमिमेसि ॥९५॥ एवं भणिओऽवि गओ वेगेण रहेण जाव उयहितडं । कविलो जा कण्होऽविहु पत्तो लवणोयहीमझं ।।९६।। अव्वत्ते धयचिंधे दटुं कविलेण पूरिओ संखो । कण्हेणऽवि कयमेवं निसुओ य परोप्परं सद्दो ।।९७।। पच्छाहुत्तो चलिओ पत्तो कविलो य अवरकंकपुरं । दट्टण तहापडिय निद्धाडियपउमनाहनिवं ।।९८॥ ठविउं तस्सेव सुयं रज्जे चंपाउरिं समायाओ। इयरोऽवि तरियजलही, लवणाहियसुट्ठियसुरस्स ।।९९।। पासंमि वैच्चमाणो पभणइ भो पंडवा ! वयह तुब्भे । उत्तरह ताव गंगं जाव अहं सुट्ठियं पासे ॥१००।। तो ते सयमुत्तरिउं पेसंति न महुमहस्स | तं नाव । बैंति य परोप्परममी पेच्छामु परक्कम हरिणो ॥१।। बावट्ठिजोयणाई वित्थिन्नं किं महानइं गंगं । तरिही भुयाहि ! किं वा नवत्ति एवं परिक्खामो | ॥२॥ एत्थंतरंमि सुट्टियसुरंतियं गंतुमागओ कण्हो । गंगातडंमि चिट्ठइ पलोयमाणो खणं नावं ।।३।। जावागया न नावा तावेगभुयाए सारही तुरए । घेत्तुं रहं च लग्गो बीयाइ भुयाए तं तरिउं ॥४॥ पत्तो य मज्झभागं परिसंतो चिंतई नियमणंमि । कहं पंउवेहि एसा बाहाहिं महाणई तरिया ।।५।। गंगादेवीवि तयं वियाणिउं देइ थाघमेयस्स । बावट्ठिजोयणाई, लंघिय पत्तो तडे ताहे ॥६।। पुच्छइ य पंडुपुत्ते तुब्बेहिं कहं इमा समुत्तिण्णा ? । तेऽविय K Jain Education International For Personal Private Use Only www.ainbrary

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