Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रकाशकीय उसके अध्यक्ष का दायित्व मुझें सौंपने का निर्णय लिया गया। मैं किंकर्तव्यविमूढ था। मैं संघ में संगठन का व्यक्ति रहा हूँ, प्रकाशन का मुझे कोई अनुभव नहीं था, फिर भी पीपाड़ में मनोनीत संघाध्यक्ष माननीय श्री रतनलाल जी बाफना व संघ कार्यकर्ताओं का आदेश शिरोधार्य था। लेखन-सम्पादन कार्य डॉ. धर्मचन्द जैन द्वारा स्वीकार किये जाने से मन में संतोष व विश्वास अवश्य था कि पूज्यपाद के कृपा प्रसाद के संबल व ।। विद्वान् सम्पादक साथी के सहयोग से मैं इस परीक्षा में अवश्य उत्तीर्ण हो पाऊँगा।
कार्य नये सिरे से प्रारम्भ हुआ। डॉ. धर्मचन्द जी जैन की भावना थी कि रत्नवंश पट्ट परम्परा, महापुरुषों का परिचय आदि कुछ आलेख मैं लिखकर उनका सहयोग करूँ। महामनीषी महापुरुष के महनीय व्यक्तित्व व कृतित्व को शब्दों में अभिव्यक्त करना संभव नहीं। प्रचार-प्रसार की भावना से कोसों दूर उन महापुरुष के जीवन बिन्दुओं का सहज संकलन भी उपलब्ध नहीं था। प्रामाणिकता का ध्यान रखना आवश्यक था। अतः भगवन्त की दैनन्दिनियों का अवलोकन कर उन कड़ियों को सूत्रबद्ध करना था। न चाहते हुए भी हुई देरी का यह प्रमुख कारण रहा। तथापि मुझे हृदय से यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि दीर्घ अवधि तक मैं इस दायित्व हेतु अपेक्षित समय नहीं दे पाया, इससे भी कार्य में विलम्ब होता गया। संघ सदस्यों की भावनाएँ भी आहत हुई और मुझे समय-समय पर उनके द्वारा उपालम्भ भी मिले। कड़वी दवा जीवनदायिनी होती है, संघ सहयोगियों के उपालम्भ के प्रसाद से मेरे मन में भी एक चुनौती का भाव जगा व अपेक्षित समय, श्रम व सहयोग की भावना जगी। मैं तत्परता से इस कार्य में सन्नद्ध हो गया और आज कार्य की पूर्णता । देखकर मन में प्रमोद है। अस्तु यह कार्य- सम्पन्नता भी उन्हीं पूज्यपाद की कृपा का ही प्रसाद है। मैं अपने आपको अत्यंत सौभाग्यशाली समझता हूँ कि अबोध बाल्यकाल से ही उन श्रीचरणों में बैठने का सौभाग्य मिला। जीवन में जो कुछ पाया, यत्किंचित् संघसेवा का जो लाभ ले पाया, वह परमाराध्य गुरुदेव के मंगल आशीर्वाद का ही सुफल है।
मैं भाई डॉ. धर्मचन्द जैन के अमूल्य सहयोग का हृदय से कृतज्ञ हूँ। उन्होंने अपनी विविध शैक्षिक गतिविधियों को गौण कर इस कार्य को सम्पन्न किया है। प्रत्यक्ष दायित्व न होने पर भी भाई प्रसन्नचन्द जी बाफना ने आगे होकर न केवल मेरा मार्गदर्शन किया, अपितु सम्पूर्ण ग्रन्थ का आद्योपान्त अवलोकन कर भाव, भाषा एवं तथ्य की दृष्टि से भी परिष्कार संबंधी अमूल्य सुझाव दिए। समूचे कार्य में सहज कर्तव्यभावना से निष्ठा के साथ प्रदत्त उनकी सहभागिता के प्रति आभार व्यक्त करना अपना कर्तव्य मानता हूँ।
परमपूज्य आचार्यप्रवर श्री हीराचन्द्र जी म.सा., मधुरव्याख्यानी श्री गौतममुनि जी म.सा. एवं शासनप्रभाविका श्री मैनासुन्दरीजी म.सा. के सान्निध्य में बैठकर पूज्य चरितनायक के जीवन प्रसंगों, संस्मरणों, उपदेशों, घटनाओं आदि के संबंध में सैद्धान्तिक विचार-विमर्श करने से अनेक अमूल्य सुझाव प्राप्त हुए। जिनसे जीवन-ग्रंथ में प्रामाणिकता एवं निर्दोषता में अभिवृद्धि हुई है। एतदर्थ हम पाठकवृन्द की ओर से भी आचार्यप्रवर, सन्तप्रवर एवं शासनप्रभाविका जी के चरणों में कोटिशः वन्दन करते हुए हृदय से कृतज्ञता स्वीकार करते हैं।
___'नमो पुरिसवरगंधहीणं' ग्रन्थ में इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि कोई भी घटना तथ्य विपरीत न हो। ग्रन्थ को प्रामाणिक बनाने का पूरा प्रयास किया गया है। चामत्कारिक घटनाओं पर भी यथासंभव विराम लगाया गया है। ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को पुष्ट करने वाली घटनाओं, प्रसंगों, तथ्यों आदि को प्राथमिकता दी गई है। अनेक भावुक भक्तों के भावप्रवण संस्मरणों को एतदर्थ छोड़ना भी पड़ा है। उनसे हम क्षमाप्रार्थी हैं। जो भी तथ्य उपलब्ध हुए हैं, उन्हें ही ग्रन्थ में संयोजित किया जा सका है। महासाधक के