Book Title: Mrutyu Mahotsav
Author(s): Dhyansagar Muni
Publisher: Prakash C Shah

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ BEARCates AASAN 129348ROOR990AM HORADARSAFACACEARREARREARRRRRRRRRRRRRARGORSARAGRESEARCCE LECDssagessagescesTTESeaseaseseaseasesesaseenastaselesseleaseey क्या सल्लेखनापूर्वक मरण, इच्छामरण है? अपने निर्वाह से कठिन अपना निर्माण है और उससे भी कठिन अपना निर्वाण है। वैसे भी जन्म-जरा-मरण का क्रम सामान्यतः दीर्घायु मनुष्य के जीवन में तो निश्चित है। इष्ट जुटाना एवं अनिष्ट हटाना भी एक नित्यक्रम है। आशा एक इष्ट की पूर्ति होने पर दूसरे इष्ट की मूर्ति दिखलाती है। जीवन का अन्त आ जाता है, आशा का नहीं। ‘और-और' करते हुए जीवन का छोर आ जाता है, परन्तु आशा का ओर-छोर नहीं आता। जीवन में कितना पाया और कितना खोया, इसका विचार तब आता है जब मरण सन्मुख होता है। जब आया, कुछ लाया नहीं; जब जायेगा, क्या ले जायेगा? तब भी मरण-समय में सब कुछ लुटने का भय उत्पन्न हो जाता है। प्राणी मृत्यु को देख थर-थर काँपने लगता है। इसीलिये किसी ने कहा है : मृत्योर्बिभेषि किं ? मूढ ! भीतं मुञ्चति किं यमः? अजातं नैव गृह्णाति कुरु यत्नमजन्मनि । _ हे मूढ़ मानव ! तू मृत्यु से क्यों डरता है ? क्या यम भयभीत प्राणी को जीवित छोड़ता है ? वह तो केवल उसे नहीं पकड़ता, जो अजन्मा है, अतः अजन्मा होने का प्रयत्न कर! स्मृति और आशा की खींचातानी से हटकर वर्तमान में निर्बन्द जीना जीने की कला है, जिसके उपदेष्टा विश्व के अनेक श्रेष्ठ सन्त-विद्वान् होते ही आये हैं। भक्ति, विवेक और निर्मल * साधना के बल पर मरण की बेला में साक्षीभाव धारण करना मरण-कला है, जिसके उपदेष्टा तीर्थंकर-जिनमात्र हुये हैं। आचार्य विद्यासागर गुरु कहते हैं : दोषरहित आचरण से चरण पूज्य बन जाय । चरणधूल तब सर चढ़े मरण पूज्य बन जाय ।। जीवन मन्दिर-तुल्य है, व्रत-संयम उसके शिखर-समान है और समाधिमरण उस शिखर पर स्थापित स्वर्ण-कलश जैसा है। जिन परमात्मा के पद-चिह्नों पर चलने पर कुमरण टल जाता है और

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68