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मृत्यु महोत्सव
संसारासक्त-चित्तानां, मृत्युर्भीत्यै भवेन्नृणाम् । मोदायते पुनः सोऽपि, ज्ञान-वैराग्यवासिनाम् ॥१०॥
अन्वयार्थ - (संसारासक्तचित्तानां नृणां ) संसार में आसक्त है चित्त जिनका, ऐसे मनुष्यों की (मृत्युः) मृत्यु (भीत्यै) भय के लिए (भवेत्) हो सकती है (पुनः) और (सः अपि ) वह मृत्यु भी (ज्ञानवैराग्यवासिनां ) ज्ञान एवं वैराग्यवासियों के लिए (मोदायते) आनन्दकारी होती है ।
छोड़ न पाते विषय - सुखों को, जब छूटें, तब डरते हैं, जो संसारासक्त बने वे, डरते-डरते मरते हैं। लेकिन ज्ञान-विराग-निवासी, अनासक्त होते जाते, और अन्त में हर्षित-मन हो, मृत्यु- महोत्सव को पाते ॥
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अन्तर्ध्वनि : संसार में आसक्त मनवाले जीवों की मृत्यु भय का कारण बनती है, क्योंकि वहाँ इष्ट-वियोग है; परंतु ज्ञान और वैराग्यसंपन्न जीवों की मृत्यु उन्हें भयभीत नहीं, आह्लादित कर देती है।
Essence : People, who's minds are engrossed in the wordly affairs, are of-course frightened of death. Those who dwell in wisdom and detachment, enjoy even death !
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