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मृत्यु महोत्सव धन्य-धन्य जु सुकौशल स्वामी, व्याघ्री ने तन खायो । तो भी श्रीमुनि नेक डिगे नहिं, आतम सों हित लायो ॥ यह० देखो गजमुनि के शिर ऊपर, विप्र अगिनि बहु बारी । शीश जले जिम लकड़ी तिनको, तो भी नाहिं चिगारी ॥ यह०
सनतकुमार मुनी के तन में, कुष्ठ वेदना व्यापी । छिन्न-भिन्न तन तासों हूवो, तब चिंतो गुण आपी ॥ यह०
श्रेणिक सुत गंगा में डूबो, तब जिननाम चितारो । धर सलेखना परिग्रह छाँड़ो, शुद्ध भाव उर धारो ॥ यह० समन्तभद्र मुनिवर के तन में, क्षुधा वेदना आई । तो दुख में मुनि नेक न डिगियो, चिंतो निजगुण भाई ॥ यह० ललित घटादिक तीस दोय मुनि, कौशाम्बी तट जानो । नद्दी में मुनि बहकर मूवे, सो दुख उन नहिं मानो ॥ यह० धर्मघोष मुनि चम्पानगरी, बाह्य ध्यान धर ठाड़ो । एक मास की कर मर्यादा, तृषा दुःख सह गाढो ॥ यह० श्रीदत मुनि को पूर्व जन्म को, बैरी देव सु आके । विक्रिय कर दुख शीत तनो सो, सह्यो साधु मन लाके ॥ यह० वृषभसेन मुनि उष्णशिला पर ध्यान धरो मन लाई । सूर्य घाम अरु उष्ण पवन की, वेदन सहि अधिकाई ॥ यह० अभयघोष मुनि काकन्दीपुर, महावेदना पाई । बैरी चण्ड ने सब तन छेदो, दुख दीनो अधिकाई ॥ यह० विद्युच्चर ने बहु दुख पायो, तौ भी धीर न त्यागी । शुभ भावन सों प्राण तजे निज, धन्य और बड़भागी ॥ यह० पुत्र चिलाती नामा मुनि को, बैरी ने तन घातो । मोटे-मोटे कीट पड़े तन, तापर निज गुण रातो ॥ यह०
दण्डक नामा मुनि की देही बाणन कर अरि भेदी । तापर नेक डिगे नहिं वे मुनि, कर्म महारिपु छेदी ॥ यह० अभिनन्दन मुनि आदि पाँचसौ, घानी पेलि जु मारे । तो भी श्रीमुनि समताधारी, पूरब कर्म विचारे ॥ यह० चाणक मुनि गोघर के माँहीं, मूँद अगिनि परजालो । श्रीगुरु उर समभाव धारकै, अपनो रूप सम्हालो ॥ यह०
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