Book Title: Mrutyu Mahotsav
Author(s): Dhyansagar Muni
Publisher: Prakash C Shah

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Page 50
________________ कलाकार कल पहलकृष्ण मृत्यु महोत्सव का पहला कलकल कम्यूब स्वर्ग सम्पदा तप सों पावै, तप सों कर्म नसावै । तप ही सों शिवकामिनि पति है, यासों तप चित लावै॥ अब मैं जानी समता बिन मुझ, कोऊ नाहिं सहाई । मात-पिता सुत बाँधव तिरिया, ये सब हैं दुखदाई ॥२४॥ मृत्यु समय में मोह करें, ये तातें आरत हो है । आरत तें गति नीची पावै, यों लख मोह तज्यो है। और परिग्रह जेते जग में तिनसों प्रीत न कीजै । परभव में ये संग न चालें, नाहक आरत कीजै ॥२५॥ जे-जे वस्तु लखत हैं ते पर, तिनसों नेह निवारो । परगति में ये साथ न चालैं, ऐसो भाव विचारो॥ परभव में जो संग चलै तुझ, तिन सों प्रीत सु कीजै । पंच पाप तज समता धारो, दान चार विध दीजै ॥२६॥ दशलक्षण मय धर्म धरो उर, अनुकम्पा चित लावो । षोड शकारण नित्य चिन्तवो, द्वादश भावन भावो॥ चारों परवी प्रोषध कीजै, अशन रात को त्यागो । समता धर दुरभाव निवारो, संयम सों अनुरागो ॥२७॥ अन्त समय में यह शुभ भावहिं, होर्दै आनि सहाई । स्वर्ग मोक्षफलं तोहि दिखावै, ऋद्धि देहिं अधिकाई॥ खोट भाव सकल जिय त्यागो, उर में समता लाके । जा सेती गति चार दूर कर, बसो मोक्षपुर जाके ॥२८॥ मन थिरता करके तुम चिंतौ, चौ-आराधन भाई । ये ही तोकों सुख की दाता, और हित कोउ नाहीं॥ आणु बहु मुनिराज भये हैं, तिन गहि थिरता भारी । बहु उपसर्ग सहे शुभ भावन, आराधन उर धारी ॥२९॥ तिनमें कछु इक नाम कहूँ मैं, सो सुन जिय चित लाकै । भाव सहित वन्दौं मैं तासों, दुर्गति होय न ताकै॥ अरु समता निज उर में आवै, भाव अधीरज जावै । यों निशदिन जो उन मुनिवर को, ध्यान हिये विच लावै ॥३०॥ धन्य धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसे धीरज धारी । एक श्यालनी जुग बच्चाजुत पाँव भख्यो दुखकारी॥ यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चितधारी । तो तुमरे जिय कौन दुःख है? मृत्यु महोत्सव बारी ॥३१॥

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