Book Title: Mrutyu Mahotsav
Author(s): Dhyansagar Muni
Publisher: Prakash C Shah

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Page 40
________________ मृत्यु महोत्सव ज्ञानिनोऽमृत-सङ्गाय, मृत्युस्तापकरोऽपि सन् । आमकुम्भस्य लोकेऽस्मिन्, भवेत्पाक-विधिर्यथा ॥१३॥ अन्वयार्थ - (अस्मिन् लोके) इस लोक में (यथा ) जिस प्रकार ( आमकुम्भस्य) कच्चे घड़े की (पाकविधिः) पाकविधि ( ताप - करः सन् अपि) तापकारी होते हुये भी (अमृतसङ्गाय) जल के समागम के लिए ( भवेत्) होती है, उसी प्रकार ( ज्ञानिनः ) ज्ञानी की ( मृत्युः) मृत्यु (अमृतसङ्गाय) अमरत्व के समागम के लिए होती है। ज्यों घट देता अग्नि- परीक्षा, फिर जल-धारी बन पाता, मृत्यु- परीक्षा देकर ज्ञानी, त्यों ही शिवपुर को जाता । शीतलताधारी होना हो, तो आवश्यक है तपना, मृत्यु - ताप से कातर -जन को, मोक्ष सदा रहता सपना ॥ अन्तर्ध्वनि : जिस प्रकार लोक में, कच्चे घड़े को अग्नि में तपा कर ही पकाया जाता है, पश्चात् वह जल को धारण करने में समर्थ होता है, उसी प्रकार जो साधक समाधिमरण में तपकर खरा नहीं उतरा, वह मोक्ष के अमृत को अपने में धारण नहीं कर सकता । Essence : How would a pot of clay, hold cool water unless it has been reddened on the hot flames of fire ? Likewise what wise-being, in this universe would attain the nectar of liberation without experiencing the heat of Death? १३

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