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शांत और विवेकी मानव ही करता है ।
• अशांत और अविवेकी मानव करता है ।
• अगले भवों में आध्यात्मिक विकास कराती है ।
• आगामी - जन्मों में अनिष्ट फलदायी है ।
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उपर्युक्त १५ बिन्दुओं पर विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सल्लेखना किसी भी प्रकार से आत्महत्या नहीं है । ५वीं शती के ग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि में ग्रन्थकार आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है कि सल्लेखना प्रेमपूर्वक स्वयं अंगीकार की जाती है, बलात् करायी नहीं जाती । (अ०७ / सू० २२)
सुप्रसिद्ध पत्रकार श्री खुशवंतसिंह ने भी इस पर अपना मन्तव्य प्रकट करते हुए कहा है : "मैं मृत्यु को बिलकुल भयंकर नहीं मानता क्योंकि मृत्यु तो एक उत्सव की बात है, इस जैन-तत्त्वदर्शन पर मैं श्रद्धा रखता हूँ ।"
आचार्य विनोबा भावे ने भी जैन-तत्त्व-दर्शन का न केवल समर्थन किया किन्तु स्वयं सल्लेखना - विधि को अंगीकार भी किया और जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उनसे व्यक्तिगत मुलाकात को एवं उन्हें अपने त्याग का संकल्प छोड़ने का अनुरोध किया तब वे अडिग भाव से बोले कि दीपावली को हमारा समय पूर्ण होता है, अतः औषध-ग्रहण का भी हमें कोई विकल्प नहीं। ठीक दीपावली को उनका देहविसर्जन हुआ । यहाँ भी मरण को आमंत्रण न देकर उसका स्वागत ही दृष्टिगोचर होता है। वास्तव में सल्लेखना मृत्युपूर्व होने वाली आकुलता से त्यागवैराग्यपूर्वक मुक्त करती है, यह मृत्यु के मुख में किसी को बलात् नहीं ले जाती ।
सल्लेखना की व्युत्पत्ति सत् + लेखना अर्थात् सम्यक् प्रकार कृश करना है, जिसका तात्पर्य होता है भली प्रकार घटाना । क्या घटाना ? बाहरी आवश्यकता और भीतरी कलुषता । इन्हें ही काय एवं कषाय- सल्लेखना अथवा बहिरंग एवं अंतरंग सल्लेखना कहते हैं । काय - सल्लेखना से शरीरगत विषैले तत्त्वों से मुक्ति, भारीपन का अभाव, कष्ट-सहिष्णुता में वृद्धि और आलस्य आदि का निवारण
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