Book Title: Mrutyu Mahotsav
Author(s): Dhyansagar Muni
Publisher: Prakash C Shah

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Page 29
________________ का कामकारकप मृत्यु महोत्सव कलकल कालकर कल्या कृमि-जाल-शताकीर्णे, जर्जर देह-पञ्जरे । भज्यमाने न भेतव्यं, यतस्त्वं ज्ञान-विग्रहः ॥२॥ ___ अन्वयार्थ (कृमिजालशताकीर्णे) सैकड़ों जीव-जन्तुओं के । समूह से व्याप्त (जर्जरे) जीर्ण-शीर्ण (देहपारे) देहरूपी पिंजरे । के (भज्यमाने) नष्ट होने पर (न भेतव्यं) भयभीत नहीं होना चाहिए (यतः) क्योंकि (त्वं) तुम (ज्ञान-विग्रहः) ज्ञान-शरीरी हो। कृमि-गण-पूरित, जरा-जर्जरित, कारा है मानव-काया, अपने कर्म-उदय के कारण, मैंने यह बंधन पाया। यदि यह नश्वर नष्ट हो रही, मैं काहे को घबराऊँ? मैं हूँ ज्ञानशरीरी चेतन, क्यों समाधि ना अपनाऊँ ?॥ अन्तर्ध्वनि : देह एक पुराना एवं जीव-जन्तुओं से भरा पिंजरा है, अतः हे आत्मन् ! इसके नष्ट होने पर तुझे भयभीत । के होने की क्या आवश्यकता है ? तू तो ज्ञानशरीरी है न! Essence : This old body-cage is filled with several hundreds of minor living-beings like worms etc. If death destroys it there is no question of panic, because O living-being! your true body is knowledge.

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