Book Title: Mangalkalash Kumar Ras
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 38
________________ (३७) लीयाने सवि जोजन नणी । मांड्या सादा रे थाल ॥सुणा मंगलकलशने तेणिये मंमावियो । रूमो रूपानो रे थाल ॥ सुनयनी ॥ सुं०॥५॥बाजोउ मांड्यो रेसाव सुवन तणो । ते पीरसे पकवान ॥ सुनयनी॥ जमी करीने ते सवि उठिया । दीधा फोफल पान ॥ सुनयनी ॥ सुंदरी० ॥६॥ निशालीया प्रतें दीधी पाघमी । धनदत्त सुतने शणगार ॥ सु॥ वाघो थाप्यो हो अतिघणा मूलनो । आप्या वली अलंकार ॥ सुन॥ सुंदरी॥७॥ निशालीया हो सवि जांखा थया । देखी पंक्तिनो रे नेद ॥ सु०॥ पण कुंवरीनी लाजें बोली नवि शके । आएयो मनमांहि खेद ॥ सु० ॥ सुंदरी० ॥ ॥ पंड्याने हो कहे नृपनंदिनी। तेहने तेमी रे एकांत ॥ सु० ॥ वात अनोपम सुणवा मुज घणी । सरस कथानी रे खांति ॥ सुवदनी ॥ सुंदरी० ॥ ए॥ ते माटे हो जटजी तमें घणो। द्यो कोश्बात्रने आदेश॥सुवदनी ॥ मोहनगारी रे देश परदेशनी । कहाणी सुणावे सुविशेष ॥ सुनयनी ॥सुंग ॥१॥बेत्रण गत्रने पंडितजी कहे। कहो तमें कथारे सुसवाद ॥ सु० ॥ ते बोल्या हो मुखें त्रटकी करी। श्राणी मने रे उन्माद ॥ सुनयनी ॥ सुं० ॥ ११॥ ते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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