Book Title: Mahopnishad
Author(s): Vijaykalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 6
________________ महोपनिषद् समर्पणम् समर्पणम् 萬萬萬萬萬萬萬得得得得得習者 समग्रोऽपि स्वजनवर्गो यया महासत्या वीतरागोपदिष्टे धर्ममार्ग आनीतः / पुत्री पुत्रौ च सोल्लासं प्रवाजिता / स्वयमपि च भ; सह प्रव्रजिता तस्यै स्वनामधन्यायै मोक्षसाधनैकसन्निमग्नायै अध्यात्मदर्शना इत्यभिधानाऽऽर्यायै सादरं समर्पितमिदं वृत्तिपुष्पम् या वनिता अपि यशसा साकं कुलयुगलं विदधति सुपताकम् / तासां सुचरितसञ्चितराकं दर्शनमपि कृतसुकृतविपाकम् //

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