Book Title: Mahavira Vani Part 2
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 19
________________ समय और मृत्यु का अंतर्बोध भी एक घाट कहा है । जो सुनना जानता है, उसे श्रावक कहा है। महावीर ने तो कहा है कि अगर कोई ठीक से सुन भी ले तो भी उस पार पहुंच जायेगा। क्योंकि सत्य अगर भीतर चला जाये तो फिर आप उससे बच नहीं सकते । सत्य अगर भीतर चला जाये तो वह काम करेगा ही। अगर उससे बचना है तो उसे भीतर ही मत जाने देना, तो सुनने में ही बाधा डाल देना । उसी समय अड़चन खड़ी कर देना। एक बार सत्य की किरण भीतर पहुंच जाये तो वह काम करेगी, फिर आप कुछ कर न पायेंगे। __इसलिए महावीर ने कहा है कि अगर कोई ठीक से सुन भी ले, तो भी पार हो सकता है। हमको हैरानी लगेगी कि ठीक से सुनने से कोई कैसे पार हो सकता है! जीसस ने भी कहा है कि सत्य मुक्त करता है। अगर जान लिया जाये, तो फिर आप वही नहीं हो सकते जो आप उसके जानने के पहले थे। क्योंकि सत्य को जान लेना, सन लेना भी, आपके भीतर एक नयी घटना बन जाती है। फिर सारा पर्सपैि बदल जाता है। फिर उस सत्य का जुड़ गया आपसे संबंध, अब आप देखेंगे और ढंग से, उठेंगे और ढंग से। अब आप कुछ भी करेंगे, वह सत्य आपके साथ होगा। अब उससे बचकर भागने का कोई उपाय नहीं है। ___ इसलिए जो कुशल हैं भागने में, बचने में, वे सुनते ही नहीं। हमने सुना है कि लोग अपने कान बंद कर लेते हैं, विपरीत बात सुनायी न पड़ जाये, प्रतिकूल बात सुनायी न पड़ जाये। हाथों से कान बंद करने वाले मूढ़ तो बहुत कम हैं, लेकिन हम ज्यादा कुशल हैं । हम भी कान बंद रखते हैं। हाथों से नहीं रखते । हम भीतर विचारों की पर्त कान के आस-पास इकट्ठी कर देते हैं। बाहर से कान बंद नहीं करते, भीतर से विचार से कान बंद कर देते हैं। तब कान पर कोई बात सुनायी पड़ती है, वह विचार की पर्त जांच-पड़ताल कर लेती है। वह हमारा सैंसर है। वहां से पार हम होने देते हैं तभी, जब लगे हमारे अनुकूल है। और ध्यान रखना, सत्य आपके अनुकूल नहीं हो सकता, आपको ही सत्य के अनुकूल होना पड़ता है। अगर आप सोचते हैं, सत्य आपके अनुकूल हो, तभी गृहीत होगा, तो आप सदा असत्य में जीयेंगे। आपको ही सत्य के अनुकूल होना पड़ेगा। इसलिए पहली बात तो ठीक से सुन लेना जरूरी है कि क्या कहा गया है। जरूरी नहीं कि उसे मान लें। ___ सुनने का अर्थ मानना नहीं है । इससे लोगों को बड़ी भ्रांति होती है। कई को ऐसा लगता है कि अगर हमने सोचा-विचारा न, तो इसका मतलब हुआ कि हम बिना ही सोचे-विचारे मान लें ! सुनने का अर्थ मानना नहीं है। सिर्फ सुन लें, अभी मानने न मानने की बात ही नहीं है। अभी तो ठीक तस्वीर सामने आ जायेगी कि क्या कहा गया है। फिर मानना न मानना पीछे कर लेना। ___ और एक बड़े मजे की बात है, अगर सत्य ठीक से सुन लिया जाये तो पीछे न मानना बहुत मुश्किल है; अगर सत्य है, तो पीछे न मानना बहुत मुश्किल है। अगर सत्य नहीं है तो पीछे मानना बहुत मुश्किल है। पर एक दफा शद्ध प्रतिबिम्ब बन जाना चाहिए, फिर मानने न मानने की बात कठिन नहीं है। साफ हो जायेगी। सत्य मना ही लेता है। सत्य कन्वर्शन है। फिर आप बच न सकेंगे। फिर तो आपको हा दिखाया पड़ने लगेगा कि मानने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। फिर सोचें खूब, फिर कसौटी करें खुब । लेकिन सोचना और कसौटी भी निष्पक्ष होनी चाहिए। . हमारा सोचने का क्या अर्थ होता है? हमारा सोचने का अर्थ होता है-पूर्वाग्रह, हमारी जो प्रेजुडिस होती है, जो हमने पहले से मान रखा है उससे अनुकूल खाये, उससे अनुकूल हो तो सत्य है। एक आदमी हिंदू घर में पैदा हुआ है, एक आदमी मुसलमान घर में, एक आदमी जैन घर में, तो जो उसने पहले से मान रखा है, वही, उससे मेल खा जाये, इसका नाम सोचना नहीं है। यह तो सोचने से बचनाहै, एस्केपिंग फ्राम थिंकिंग। आपने जो मान रखा है, अगर वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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