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८ : महावीर निर्वाण भूमि पावा : एक विमर्श शासक नन्द अपनी राजधानी पाटलिपुत्र ले गये। लेख में आगे लिखा है कि खारवेल ने इस प्रतिमा को मगध से कलिंग में ले जाकर वहाँ उसकी प्रतिष्ठापना की। इस उल्लेख से ईसवी पूर्व चौथी शती में तीर्थंकर प्रतिमा के अस्तित्व का पता चलता है। __ मथुरा, कौशाम्बी आदि कई स्थलों से पत्थर के बने हुए वर्गाकार या आयताकार 'आयागपट्ट' मिले हैं। पूजा के लिए उनका प्रयोग होने के कारण उन्हें “आयागपट्ट" कहा जाता था। अनेक पट्टों पर बीच में ध्यान-मुद्रा में पद्मासन पर अवस्थित तीर्थंकर मूर्ति है। उसके चारों
ओर अनेक सुन्दर अलंकरण तथा प्रशस्त चित्र बने हैं। आयागपट्टों का निर्माण ईसवी पूर्व प्रथम शती से आरम्भ हआ। उन पर उत्कीर्ण लेखों से ज्ञात होता है कि उनमें से अधिकांश का निर्माण महिलाओं की दानशीलता के कारण हआ। मंदिरों, विहारों तथा मतियों के निर्माण में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक रुचि लेती थीं। प्राचीन शिलालेखों से इस बात की पुष्टि होती है।
कुषाण-काल ( ई० प्रथम-द्वितीय शती ) से जैन "सर्वतोभद्रिका" प्रतिमाओं का निर्माण आरम्भ हआ। इन पर चारों दिशाओं में प्रत्येक
ओर एक-एक जिन मूर्ति पद्मासन पर बैठी हुई या खड्गासन में खड़ी हुई मिलती है। ये तीर्थंकर प्रायः आदिनाथ ( ऋषभनाथ ) पार्श्वनाथ, नेमिनाथ तथा महावीर हैं। मध्यप्रदेश के धुवेला संग्रहालय में एक सुन्दर सर्वतोभद्र मूर्ति है, जो पूर्व-मध्यकाल की है । उस पर उक्त चारों तीर्थकरों के चिह्न भी अंकित हैं, जिससे उनके पहचानने में कोई संदेह नहीं रह जाता।
सर्वतोभद्रिका प्रतिमा की परम्परा मध्यकाल के अन्त तक जारी रही। मथुरा, देवगढ़ आदि स्थानों से प्राप्त अनेक सर्वतोभद्रिका मूर्तियाँ अभिलिखित हैं और मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से बड़े महत्त्व की हैं।
महावीर के मन्दिरों का निर्माण कब से आरम्भ हुआ, यह विवादग्रस्त है। प्राचीन जैन आगामों में प्रायः तीर्थंकर मंदिरों का उल्लेख नहीं मिलता। महावीर स्वामी अपने भ्रमण के समय मंदिरों में नहीं ठहरते थे, बल्कि चैत्यों में विश्राम करते थे। इन चैत्यों को टीकाकारों ने “यक्षायतन" ( यक्ष का पूजा-स्थल ) कहा है। भारत में यक्ष-पूजा बहुत प्राचीन है। यक्षों के मंदिरों या "थानों" में उनको पूजा होती थी। आगम ग्रन्थ "भगवती सूत्र" के अनुसार महावीर ने "पृथ्वी शिलापट्ट" के ऊपर
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