Book Title: Loknalidwatrinshika
Author(s): Vijayjinendrasuri, 
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala

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Page 4
________________ 'अल्प वक्तव्य। ।।३॥ जैन शास्त्र ए सर्वज्ञ परमात्मानं शासन छे तेना एक उपदेशमां पण तत्त्वावबोध भर्या छे. __ आ प्रकाशनमां (१) तपोगण नभोमणि श्री धर्मघोषसूरि विरचिता लोकनालिद्वात्रिशिका अवचूरि (२) श्री लध्वल्पबहुत्वम् (३) श्री धर्मघोषसूरि प्रणीत योनिस्तव प्रकरणं (४) श्री विजय विमलगणि विरचितं | भावप्रकरणं स्वोपज्ञावचूर्या समलाकृतम् (५) महो श्रीयशोविजबगणि प्रणीत स्वोपज्ञतत्त्वविवेकारख्य विवरणविभूषितं श्री कूपदृष्टान्तविशदीकरणप्रकरणं (६) महो. यशो विजय गणिप्रणीत निशाभक्त स्वरूपतो दूषितत्वविचार:. एम छ प्रकरणो अही आप्या छे. जे स्वाध्याय सुलभ अने बोध दुर्लभ देनारा छे. तेनुं खास चितवन थाय तो घणो प्रकाश पडे छे. ||३॥ २०४९ द्वितीय भाद्रपद सूद १, पोरवाड वास आराधना भवन रतलाम जिनेन्द्रसूरि For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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