Book Title: Laghu Nayachakrama
Author(s): Devsen Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Pannalal Jain Granthamala

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Page 12
________________ अर्थ – जिस प्रकार कोई तृषातुर मूढ़ जल विना तृप्ति तथा धर्म विना सुख चाहता है । उसी प्रकार नय ज्ञान के विना द्रव्य के स्वरूप का निश्चय कोई अज्ञानी चाहता है। विशेषार्थ - जिस प्रकार कोई मूर्ख धर्म बिना सुख की कामना, जल के बिना तृषा निवृति चाहता है, उसी प्रकार नय ज्ञान के बिना द्रव्य के स्वरूप का निर्णय करने वाला मूढ़ समझना चाहिए । द्रव्य के स्वरुप का निर्णय नय ज्ञान के बिना किसी भी प्रकार से संभव नहीं है। द्रव्य के निर्णय विनाध्यान नहीं जह ण विभुंजइ रज्जं राओ गिहभेयणेण परिहीणो। तह झादा णायव्वो दवियणिछित्तीहिं परिहीणो 17।। यथा न विभुनक्ति राज्यं राजा गृहभेदनेन परिहीणः । तथा ध्याता ज्ञातव्यो द्रव्यनिश्चितिभिः परिहीणः।।7।। अर्थ - जिस प्रकार राजनीति को नहीं जानने वाला राजा, राज्य वैभव का भोग नहीं कर सकता है। ठीक उसी प्रकार द्रव्य के यथार्थ बोध से विहीन ध्याता ध्यान की प्राप्ति नहीं कर सकता है। विशेषार्थ - राजा राज्य के वैभव का भोग राजनीति के ज्ञान के बिना नहीं कर सकता है, क्योंकि राज्य संचालन ज्ञान के आधार पर वह राज्य स्थिति एवं प्रजा की व्यवस्था इत्यादि का समीचीन निर्णय करने में समर्थ होता हैं । ठीक इसी प्रकार सम्यक् ध्यान का इच्छुक यदि द्रव्य के यथार्थ बोध से रहित होगा तो ध्यान करने में समर्थ नहीं हो सकेगा। अतः ध्याता के लिए भी पदार्थ के स्वरूप का यथार्थ बोध होना आवश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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