Book Title: Laghu Nayachakrama
Author(s): Devsen Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Pannalal Jain Granthamala

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Page 60
________________ विशेषार्थ - देश, राज्य, दुर्ग आदि जीव और अजीवों के समुदाय रूप हैं, क्योंकि उनमें जड़ और चेतन दोनों का आवास होता है । उनको अपना कहना सजाति-विजाति उपचरित असदभूत व्यवहारनय है । चेतन सजाति है और जड़ विजाति है। अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म का अन्यत्र आरोप करना असद्भूत व्यवहार है । अतः असद्भूत व्यवहार स्वयं उपचार रूप है और उपचार का भी उपचार करना उपचरितासद्भूतव्यवहार है। अनेकांत से तत्व सिद्धि एयंते णिरवेक्खे णो सिज्झइ विविहभावगं दव्वं । तं तह वयणेयंते इदि बुज्झइ सियअणेयंतं ।।75।। एकान्ते निरपेक्षे नो सिद्ध्यति विविधभावगं द्रव्यम् । तत्तथा वचनेऽनेकान्ते इति बुध्यत स्यादनेकान्तम् ।।75।। अर्थ - निरपेक्ष एकान्तवाद में अनेक भाव रुप द्रव्य की सिद्धि नहीं होती। इसी तरह एकान्त निरपेक्ष अनेकान्तवाद में भी तत्व निर्णय नहीं होता है इसलिए कथंचित् अनेकान्तवाद को जानना चाहिए। विशेषार्थ – यद्यपि वस्तु अनेकधर्मात्मक है, किन्तु ज्ञाता अनेकधर्मात्मक वस्तु का भी अपने अभिप्राय के अनुसार किसी एक ही धर्म की प्रधानता से कथन करता है। जैसे देव दत्त किसी का पुत्र है तो किसी का पिता भी है। अतः वास्तव में न तो वह केवल पिता ही है और न केवल पुत्र ही है, तथापि अपने पिता की दृष्टि से वह पुत्र ही है और अपने पुत्र की दृष्टि से वह पिता ही है। इस तरह उसका पिता-पुत्र रूप अनेकान्त है और केवल पिता या केवल पुत्र रूप एकान्त है। इन दोनों रूपों को स्वीकार करने पर ही देवदत्त के सम्बन्धों का या धर्मो का यथार्थ ज्ञान होता है। इसी तरह एकान्त सापेक्ष अनेकान्तवाद से ही वस्तु के यथार्थ स्वरूप का बोध होता है। | 53_ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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