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विभाव रूप स्वभाव के अभाव की भावना परभावादो सुण्णो संपुण्णो जो हु होइ णियभावे । जो संवेयणगाही सोहं णादा हवे आदा ||80II
परभावतः शून्यः संपूर्णो यो हि भवति निजभावे । यः संवेदनग्राही सोऽहं ज्ञाता भवाम्यात्मा ।।80।।
अर्थ - जो परभाव से सर्वथा रहित सम्पूर्ण स्वभाव वाला है, वही मैं ज्ञाता आत्मा हूँ तथा स्वसंवेदन से जिसका ग्रहण होता है।
सामान्य गुण की प्रधानता से भावना जडसब्भावो णहु मे जह्मा तं जाण भिण्णजडदव्वे। जो संवेयणगाही सोहं णादा हवे आदा ॥8111
जडस्वभावो न मे यस्मात्तं जानीहि भिन्नजडद्रव्ये।
यः संवेदनग्राही सोहं ज्ञाता भवाम्यात्मा ।।81।।
अर्थ - मेरा जड़ स्वभाव नहीं है क्योंकि जड़ स्वभाव तो अचेतन द्रव्य में कहा है। मैं तो वही ज्ञाता आत्मा हूँ जो स्वसंवेदन के द्वारा ग्रहण किया जाता है।
विशेषार्थ - चारित्र धारण करने के पश्चात् उसकी वृद्धि के लिए साधु को उक्त भावना करते रहना चाहिए कि मैं ज्ञाता-दृष्टा हूँ। 'मैं हूँ' इस प्रकार के स्वसंवेदन - स्वको जानने वाले ज्ञान के द्वारा मेरा ग्रहण होता है । यह विशेषता चेतन द्रव्य के सिवाय अन्य किसी भी अचेतन द्रव्य में नहीं है । अचेतन द्रव्य न स्वयं अपने को जान सकता है और न दूसरों को जान सकता है। अचेतन द्रव्य पौद्गलिक कर्मो के संयोग से जो रागादि भाव मेरे में होते हैं, वे भी मेरे नहीं हैं, वे तो कर्म का निमित्त पाकर होते हैं। इस प्रकार का चिन्तन
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