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करते रहने से पर में आत्मबुद्धि नहीं होती और आत्मा में ही आत्मबुद्धि होने से आत्मतल्लीनता बढ़ती है, उसी का नाम वस्तुतः चारित्र है।
विपक्षी द्रव्य के स्वभाव का अभाव रूप से भावना मज्झ सहावं णाणं दसणं चरणं न किंपि आवरणं । जो संवेयणगाही सोहं णादा हवे आदा ||82||
मम स्वभावः ज्ञानं दर्शनं चरणं न किमपि आवरणम् ।
यः संवेदनग्राही सोहं ज्ञाता भवाम्यात्मा ।।82।।
अर्थ - मेरा स्वभाव ज्ञान, दर्शन, चारित्र है कोई भी आवरण मेरा स्वभाव नहीं है। इस प्रकार मैं वही ज्ञाता आत्मा हूँ जो स्वसंवेदन के द्वारा ग्रहण किया जाता है।
स्व स्वभाव की प्रधानता से भावना घातिचउक्कं चत्तं संपत्तो परमभावसब्भावं । जो संवेयणगाही सोहं णादा हवे आदा ।।83||
घातिचतुष्कं त्यक्त्वा सम्प्राप्तः परमभावसद्भावम्।
यः संवदेनग्राही सोहं ज्ञाता भवाम्यात्मा ।।83।।
अर्थ - घातिया चतुष्क को नष्ट करके परम पारिणामिक स्वभाव को प्राप्त मैं वही ज्ञाता आत्मा हूँ जो स्वसंवेदन के द्वारा ग्रहण किया जाता है।
निर्विकल्पक योगी आत्मानंद सम्पन्न णियपरमणाणसंजणिय जोयिणो चारुचेयणाणंदं । जइया तइया कीलइ अप्पा अवियप्पभावेण ||84||
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