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यथा रससिद्धो वैद्यौ हेम कृत्वा भुनक्ति भोगम् । तथा नयसिद्धो योगी आत्मानमनुभवत्वनवरतम्।।77।।
अर्थ - जैसे रस सिद्ध वैध पारदादि के योग से स्वर्ण बनाकर भोगों का अनुभव करता है, उसी प्रकार नय सिद्ध ( नय निपुण) योगी निरन्तर आत्मअनुभव करता है।
चारित्रफल एवं उसकी वृद्धि के लिए भावनाएँ मोक्खं च परमसोक्खं जीवे चारित्तसंजुदे दिळं । वट्टइ तं जइवग्गे अणवरयं भावणालीणे ।।7811
मोक्षं च परमसौख्यं जीवे चारित्रसंयुते दृष्टम् ।
वर्तते तद्यतिवर्गे अनवरतं भावनालीने ।। 78।। . अर्थ – चारित्र से युक्त जीव में परम सौख्य रूप मोक्ष पाया जाता है और वह चारित्र निरन्तर भावना में लीन मुनि समुदाय में पाया जाता है।
रायाइभावकम्मा मज्झ सहावा ण कम्मजा जह्मा । जो संवेयणगाही सोहं णादा हवे आदा ।।7911
रागादिभावकर्माणि मम स्वभावा न कर्मजा यस्मात्।
यः संवेदनग्राही सोहं ज्ञाता भवाम्यात्मा ।।79।।
अर्थ - रागादि भावकर्म मेरे स्वभाव नहीं है क्योंकि वे तो कर्मजन्य है। मैं तो ज्ञाता आत्मा हूँ जो स्वसंवेदन के द्वारा जाना जाता हूँ। अर्थात् इस प्रकार भावना निरन्तर माने वाले मुनियों में चारित्र पाया जाता है।
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