Book Title: Laghu Nayachakrama
Author(s): Devsen Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Pannalal Jain Granthamala

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Page 61
________________ कथंचित् व्यवहार नय की गौणता अनिवार्य ववहारादो बंधो मोक्खो जह्मा सहावसंजुत्तो । तह्मा कर तं गउणं सहावमाराहणाकाले ||76|| व्यवहारात् बन्धो मोक्षो यस्मात्स्वभावसंयुक्तः । तस्तात्कुरु तं गौणं स्वभावमाराधनाकाले |176|| अर्थ व्यवहार से बन्ध होता है और स्वभाव में लीन होने से मोक्ष होता है इसलिए स्वभाव की आराधना के समय व्यवहार को गौण करना चाहिए । ➖ विशेषार्थ मोक्ष प्राप्ति के लिए जो कुछ बाह्य प्रयत्न किये जाते हैं वे सब प्रवृतिपरक होने से व्यवहार कहे जाते हैं । उस व्यवहार से यद्यपि बन्ध होता है, किन्तु उसके बिना निश्चय की प्राप्ति भी सम्भव नहीं हैं । स्वभाव में लीन होने के लिए क्रम से बाह्य प्रवृति को रोकना होता है और बाह्य प्रवृति को रोकने के लिए प्रवृति के विषयों को त्यागना होता हैं । अतः स्वभाव में लीन होने के लिए यह आवश्यक है कि हम अव्रत से व्रत की ओर आये । ज्यों-ज्यों हम स्वभाव में लीन होते जायेंगे प्रवृतिरूप व्रत, नियमादि, स्वतः छूटते जायेंगे। अतः स्वभाव की आराधना के समय व्यवहार को गौण करने का उपदेश दिया है । यदि उस समय में भी रूची व्यवहार की ओर ही रही तो स्वभाव में लीनता हो नहीं सकेगी। नय सिद्ध योगी ही आत्मानुभवी जह रससिद्धो वाई हेमं काऊण भुंजये भोगं । तह णय सिद्धो जोई अप्पा अणुहवउ अणवरयं ॥77॥ Jain Education International 54 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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