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समभिरूढ़ नय -
'परस्परेणाभिरूढाः समभिरूढाः।' परस्पर में अभिरूढ शब्दों को ग्रहण करने वाला नय समभिरूढ नय कहलाता है। इस नय के विषय में शब्द भेद रहने पर भी अर्थ भेद नहीं है, जैसे शक्र , इन्द्र और पुरंदर ये तीनों ही शब्द देवराज के पर्यायवाची होने से देवराज में अभिरूढ है।
एवंभूत नय -
जिस शब्द का जिस क्रिया रूप अर्थ है तद्रूप किया से परिणत समय में ही उस शब्द का प्रयोग करना युक्त है , अन्य समय में नहीं, ऐसा जिस नय का अभिप्राय है वह एवंभूत नय है। जैसे - पूजा करते हुये मनुष्य को ही पुजारी कहना।
सद्भूत असदभूत और उपचरित ये तीन उपनय के भेद जानना चाहिए । आचार्य अकलंक देव ने अष्टशती नामक ग्रथ में नैगम संग्रह आदि को नय
और उनकी शाखा प्रशाखाओं भेद-प्रभेदों को उपनय कहा है। तथा आलाप पद्धति में जो नयों के समीपवर्ती हो उन्हें उपनय कहा गया है।
द्रव्यार्थिकादिनयों के भेद दव्वत्थं दहभेयं छड्भेयं पज्जयत्थियं णेयं । तिविहं च णेगमं तह दुविहं पुण संगहं तत्थ ।।13|| ववहारं रिउसुत्तं दुवियप्पं सेसमाहु एक्केक्का । उत्ता इह णयभेया उपणयभेयावि पभणामो ||14|| द्रव्यार्थिको दशभेदः षड्भेदः पर्यायार्थिको ज्ञेयः । त्रिविधश्च नैगमस्तथा द्विविधः पुनः संग्रहस्तत्र ।।13।।
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