Book Title: Laghu Nayachakrama
Author(s): Devsen Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Pannalal Jain Granthamala

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Page 46
________________ है और भेद कल्पना सापेक्ष सद्भूत व्यवहार नय से बहुप्रदेशी है । इस प्रकार नय भेद से उक्त कथन भेद का समन्वय कर लेना चाहिए। असद्भूतभूतव्यवहार नय का लक्षण एवं भेद अण्णेसिं अण्णगुणा भणइ असब्भूय तिविहभेदेवि । सज्जाइइयरमिस्सो णायव्वो तिविहभेदजुदो ||50II अन्येषामत्र गुणा भणिता असद्भूतत्रिविधभेदेऽपि। स्वजातीय इतरो मिश्रो ज्ञातव्यस्त्रिविधभेदयुतः ।।50।। अर्थ - जो अन्य के गुणों को अन्य का कहता है वह असद्भूत व्यवहारनय है। उसके तीन भेद है सजाति, विजाति और मिश्र तथा उनमें से भी प्रत्येक के तीन - तीन भेद हैं। विशेषार्थ – उपर्युक्त सभी के भेदों का खुलासा आगे करिकाओं में किया जायेगा। दव्वगुणपज्जयाणं उवयारं होइ ताण तत्थेव । दव्व गुणपज्जया गुणे दवियपज्जया णेया ।।51।। द्रव्यगुणपर्यायाणां उपचारो भवति तेषां तत्रैव । द्रव्ये गुणपर्यायौ गुणे द्रव्यपर्याया ज्ञेयाः ।।।1।। पज्जाये दव्वगुणा उवयरियव्वा हु बंधसंजुत्ता । संबंधे संसिले सो णाणीणं णेयमादीहिं ।।52।। पर्याये द्रव्यगुणा उपचरितव्या हि बन्धसंयुक्ताः । संबन्धे संश्लेषे ज्ञानिनां नैगमादिभिः ।। 52।। | 39 Jain Education International Foi Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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