Book Title: Laghu Nayachakrama
Author(s): Devsen Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Pannalal Jain Granthamala

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Page 44
________________ दव्वाणं खु पएसा बहुगा ववहारदो य इक्केण । अण्णेय य णिच्छयदो भणिया का तत्थ खलुहवे जुत्ती।।47।। द्रव्याणां खलु प्रदेशा बहुगा व्यवहारतश्च एकेषाम् । अन्येन च निश्चयतो भणिताः का तत्र खलु भवेयुक्तिः ।।47।। अर्थ- एक आचार्य ने व्यवहार नय से द्रव्यों के बहुत प्रदेश कहे है। अन्य आचार्य ने निश्चय नय से द्रव्य के बहुत प्रदेश कहे हैं। इसमें क्या युक्ति है ॥47॥ तदुच्यते व्यवहाराश्रयाद्यस्तु संख्यातीतप्रदेशवान् । अभिन्नात्मैकदेसित्वादेक देशोऽपि निश्चयात् ।।1।। कहा भी है - व्यवहार नय के आश्रय से जो असंख्यात प्रदेशी है वही निश्चयनय से अभिन्न एक आत्म रूप होने से एक प्रदेशी भी है। अणुगुरुदेहपमाणो उवसंहारप्पसप्पदो चेदा । असमुहदोववहारा णिच्चयणयदो असंखदेसोवा।।48।। अणुगुरुदेहप्रमाणः उपसंहारप्रसर्पतः चेतयिता । असमुद्धाताद् व्यवहारात् निश्चयनयतो संख्यदेशो वा ।।48।। अर्थ - व्यवहारनय से आत्मा संकोच - विस्तार गुण के कारण समुद्धात अवस्था के अतिरिक्त शेष सब अवस्थाओं में प्राप्त छोटे या बड़े निज शरीर के बराबर है और निश्चयनय से असंख्यात प्रदेश वाले लोकाकाश के बराबर है। | 37 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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