Book Title: Laghu Nayachakrama
Author(s): Devsen Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Pannalal Jain Granthamala

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Page 52
________________ स्वजाति पर्याय में स्वजाति गुण का आरोपण करने वाला असद्भूत व्यवहार नय दळूण देहठाणं वण्णंतो होई उत्तमं रूवं । गुणउवयारो भणिओ पज्जाए णत्थि संदेहो ।।61|| दृष्ट्वा देहस्थानं वर्ण्यमानं भवति उत्तमं रूपं । गुणोपचारो भणितः पर्याये नास्ति संदेहः ।।61।। अर्थ - शरीर के आकार को देखकर उसका वर्णन करते हुए कहना कि कैसा उत्तम रुप है, यह पर्याय में गुण का उपचार है इसमें सन्देह नहीं। विशेषार्थ - शरीर का आकार तो पर्याय है और रूप गुण है । अतः शरीर के आकार को देखकर यह कैसा सुन्दर रूप है । ऐसा कहना स्वजाति पर्याय में स्वजाति गुण का आरोप करने वाला असद्भूत व्यवहार नय है । व्यवहार सर्वथा असत् नहीं है सइत्थ पच्चयादो संतो भणिदो जिणेहि ववहारो । जस्स ण हवेइ संतो हेऊ दोण्हपि तस्स कुदो ।।62।। शब्दार्थप्रत्ययतः सतो भणितो जिनैर्व्यवहारः । यस्य न भवेत्सत् हेतू द्वावपि तस्य कुतः ।।62।। चइगइ इह संसारो तस्स य हेऊ सुहासुह कम्मं । जइतं मिच्छा तो किह संसारो संखमिव तस्समये।।63|| चतुर्गतिरिह संसारस्तस्य च हेतुः शुभाशुभ कर्म । यदि तन्मिथ्या तर्हि कथं संसारः सांख्य इव तत्समये।।63।। एइंदियादिदेहा जीवा ववहारदो दु जिणदिठ्ठा । हिंसादिसु जदि पावं सव्वत्थो किं ण ववहारो ।।64|| 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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