________________
जो चेव जीवभावो णिच्छयदो होई सव्वजीवाणं । सो चिय भेदुवयारा जाण फुडं होइ ववहारो ॥66||
__ यश्चैव जीवभावः निश्चयतो भवति सर्वजीवनाम् । . स चैव भेदापचारात्स्फुटं भवति व्यवहारः ।।66।।
अर्थ - निश्चय नय से जो जीव स्वभाव सब जीवों में होता है भेदोपचार से वह भी व्यवहार है ऐसा स्पष्ट जानों।
विशेषार्थ - जीव का जो नैश्चयिक स्वभाव है जो सब जीवों में पाया जाता है; यदि उसमें भी भेद का उपचार किया जाता है तो वह भी व्यवहारनयकी सीमा में ही आता है । अतः निश्चयनय की दृष्टि में आत्मा में दर्शन, ज्ञान और चारित्र का भी भेद नहीं है। क्योंकि आत्मा अनन्त धर्मो का एक अखण्ड पिण्ड है, किन्तु व्यवहारी मनुष्य धर्मो की प्ररूपणा के बिना धर्मी आत्मा को नहीं समझते । अतः उन्हें समझाने के लिए अभेद रूप वस्तु में भी धर्मो का भेद करके ऐसा उपदेश किया जाता है कि आत्मा में दर्शन , ज्ञान एवं चारित्र है अतः अभेद में भेद का उपचार करने से यह व्यवहार है। परमार्थ से तो अनन्त गुण-पर्यायों को धारण किये हुए प्रत्येक द्रव्य अभेद रूप ही है।
भेदुवयारो णियमा मिच्छादिठ्ठीण मिच्छरूवं खु । सम्मे सम्मो भणिओ तेहि दुबंधो व मुक्खो वा ।।67।। भेदोपचारो नियमान्मिथ्यादृष्टीनां मिथ्यारूपः खलु । सम्यक्त्वे सम्यक् भणितः तैस्तु बन्धो वा मोक्षो वा ।।67।।
अर्थ - मिथ्यादृष्टियों का भेद रूप उपचार तथा निश्चय मिथ्या होता है और सम्यग्दृष्टियों का सम्यक् होता है। उन्हीं से बन्ध अथवा मोक्ष होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org