Book Title: Laghu Nayachakrama
Author(s): Devsen Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Pannalal Jain Granthamala

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Page 45
________________ एयपदेसे दव्वं णिच्छयदो भेयकप्पणारहिदा । संभूएणं बहुगा तस्स य ते भेयकप्पणासहिए ॥49|| एक प्रदेशे द्रव्यं निश्चयतः भेद कल्पना रहितः । सद्भूतं बहुगा तस्य यः ते भेदकल्पनासहितः ।।49।। अर्थ – भेद कल्पना रहित निश्चयनय से द्रव्य एक प्रदेशी है और भेद कल्पना सहित सद्भूत व्यवहारनय से बहुत प्रदेशी है। विशेषार्थ - 47, 48, 49 - जैन सिद्धान्त में विविध नयों के द्वारा वस्तु स्वरूप का कथन किया गया है। यदि नय दृष्टि को न समझा जावे तो उस कथन में परस्पर विरोध प्रतीत हुए बिना नहीं रह सकता। इसका उदाहरण शंकाकार की उक्त शंका ही है कि किसी आचार्य ने व्यवहार नय से जीव के बहुत प्रदेश कहे हैं और किसी आचार्य ने निश्चय नय से जीव के बहुत प्रदेश कहे हैं। इसमें क्या युक्ति है ? क्यों उन्होंने ऐसा कहा है ? ग्रन्थकार उत्तर देते हैं कि यद्यपि जीव द्रव्य एक और अखण्ड है। किन्तु वह बहुप्रदेशी है, तभी तो उसे छोटा या बड़ा जैसा शरीर प्राप्त होता है उसी में व्याप्त होकर रह जाता है। बड़ा शरीर मिलने पर उसी जीव के प्रदेश फैल जाते हैं और छोटा शरीर मिलने पर संकुचित हो जाते है किन्तु ऐसा होने से उसकी अवगाहना तो घटतीबढ़ती है , परन्तु प्रदेश नहीं घटते - बढ़ते । जैसे रबड़ को तानने पर वह फैल जाती है , फिर सकुच जाती है , किन्तु रबड़ के प्रदेश उतने ही रहते हैं। इस तरह जीव असंख्यात प्रदेशी है, किन्तु प्रदेश भेद होते हुए भी जीव तो एक अखण्ड ही है । अतः भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध निश्चयनय से जीव एक प्रदेशी | 38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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