Book Title: Laghu Nayachakrama
Author(s): Devsen Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Pannalal Jain Granthamala

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Page 48
________________ मूर्त्तमिह मतिज्ञानं मूर्तिकद्रव्येण जनितं यस्मात् । यदि नहि मूर्तं ज्ञानं तत्कथं स्खलितं हि मूर्तेन ।। 54।। अर्थ - मतिज्ञान मूर्तिक है क्योंकि मूर्तिक द्रव्य से पैदा होता है यदि मतिज्ञान मूर्त न होता तो मूर्त के द्वारा वह स्खलित क्यों होता। विशेषार्थ - आत्मा अमूर्तिक है, अतः उसका ज्ञानगुण भी अमूर्तिक है। किन्तु जैसे कर्मबन्ध के कारण अमूर्तिक आत्मा को व्यवहार से मूर्तिक कहा जाता है, वैसे ही कर्मबद्ध आत्मा के इन्द्रियों की सहायता से होने वाला मतिज्ञान भी मूर्त कहलाता है । क्योंकि वह मूर्त इन्द्रियों से पैदा होता है , मूर्त पदार्थों को जानता है, मूर्त के द्वारा उसमें बाधा उपस्थित हो जाती है, यह विजातीय गुण ज्ञान में विजातीय गुण मूर्तता का आरोप करनेवाला असद्भूत व्यवहारनय है। स्वजातीय पर्याय मेंस्वजातीयपर्याय का आरोपण करनेवाला असद्भूतव्यवहार नय दणं पडिबिंबं भवदि हु तं चेव एस पज्जाओ। सज्जाइअसब्भूओ उवयरिओ णिययजातिपज्जाओ ।।55।। दृष्ट्वा प्रतिबिम्बं भवति हि स चैव एष पर्यायः । स्वजात्यसद्भूतोपचरितो निजजातियः ।।55।। अर्थ - प्रतिबिम्ब को देखकर यह वही पर्याय है जो ऐसा कहता है वह स्वजाति पर्याय में स्वजाति पर्याय का उपचार करने वाला असद्भूत व्यवहार नय है। विशेषार्थ - दर्पण भी पुद्गल की पर्याय है उसमें प्रतिबिम्बित मुख भी पुद्गल की पर्याय है तथा जिस मुख का उसमें प्रतिबिम्ब पड़ रहा है वह मुख भी पुद्गल की पर्याय है। दर्पण में प्रतिबिम्बित मुख को देखकर यह कहना कि यह वही मुख है - यह स्वजाति पर्याय में स्वजाति पर्याय का आरोप करनेवाला असदभूत व्यवहार नय है। | 41 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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