________________ विषय है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है। जैसे - कड़े आदि पर्यायों में तथा पीतत्व आदि गुणों में अन्वय रूप से रहने वाला स्वर्ण अथवा मनुष्य, देव आदि नाना पर्यायों में यह जीव है, यह जीव है ऐसा अन्वय द्रव्यार्थिक नय का विषय है। स्व,पर द्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय सद्दव्वादिचउक्के संतं दव्वं खु गिर्जए जो हु / णियदव्वादिसु गाही सो इयरो होइ विवरीयो / / 25 / / स्वद्रव्यादिचतुष्के सद्र्व्यं खलु गृह्णाति यो हि। निजद्रव्यादिषु ग्राही स इतरो भवति विपरीतः।।25।। अर्थ - जो स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव में वर्तमान द्रव्य को ग्रहण करता है वह स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय है / और जो पर द्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव में असत् द्रव्य को ग्रहण करता है वह पर द्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय है। विशेषार्थ - प्रत्येक द्रव्य स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा सत् है और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और पर भाव की अपेक्षा असत् है। स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र , स्वकाल और स्वभाव को स्वचतुष्टय कहते हैं। स्वयं द्रव्य तो स्वद्रव्य है। उस द्रव्य के जो अखण्ड प्रदेश हैं वही उसका स्वक्षेत्र है, प्रत्येक द्रव्य में रहने वाले गुण उसका स्वकाल है और गुणो के अंश 'अविभाग प्रतिच्छेद हैं , वह स्वभाव है। इसी स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से द्रव्य के अस्तित्व को अस्तिरूप से ग्रहण करने वाला नय स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय है। पर द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से जोनय विवक्षित पदार्थ में वस्तु के नास्तित्व को बतलाता है वह परद्रव्यादि सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय है। जैसे रजत द्रव्य, रजत क्षेत्र, रजत काल, रजत पर्याय अर्थात्रजतादि रूप से स्वर्ण नास्ति है। | 22 | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org