Book Title: Laghu Nayachakrama
Author(s): Devsen Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Pannalal Jain Granthamala

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Page 38
________________ जीव अजीव आदि के भेद से विभाजन करता है वह शुद्ध संग्रह का भेदक व्यवहारनय है । इस तरह सामान्यसंग्रह नय के द्वारा स्वीकृत सत्ता सामान्य अर्थ को भेदकर जीव, पुद्गल कहना; सेना शब्द के द्वारा स्वीकृत अर्थ को भेदकर हाथी, घोड़ा, रथ, प्यादे आदि को कहना; नगर शब्द के द्वारा स्वीकृत पदार्थ का भेद कर लुहार, सुनार, कंसार, औषधिकार, मारक, जलकार, वैद्य आदि कहना; वन शब्द के द्वारा स्वीकार किये गये अर्थ को भेदकर पनस आम, नारियल, सुपारी आदि वृक्षों को कहना सामान्य संग्रह का भेदक व्यवहारनय है। विशेष संग्रहनय के विषयभूत पदार्थ को भेदरूप से ग्रहण करने वाला विशेष संग्रहभेदक व्यवहार नय है, जैसे-जीव के संसारी और मुक्त ऐसे दो भेद करना। ऋजुसूत्रनय के भेदों का स्वरूप जो एयसमयवट्टी गिह्णइ दव्वे धुवत्तपज्जाओ । सो रिउसुत्तो सुहुमो सव्वं पि सदं जहा खणियं ।।38।। य एकसमयवर्तिनं गृह्णाति द्रव्ये ध्रुवत्वपर्यायम् । स ऋजुसूत्रः सूक्ष्मः सर्वमपि सद्यथा क्षणिकम्।।38।। मणुबाइयपज्जाओ मणुसुत्ति सगढ़िदीसु बटुंतो । जो भणइ तावकालं सो थूलो होइ रिउसुत्तो ।।3।। मनुजादिकपर्यायो मनुष्य इति स्वकस्थितिषु वर्तमानः। यो भणति तावत्कालं स स्थूलो भवति ऋजुसूत्र ः।।39।। अर्थ – जो द्रव्य में एक समयवर्ती अध्रुवपर्याय को ग्रहण करता है उसे | 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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