Book Title: Laghu Nayachakrama
Author(s): Devsen Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Pannalal Jain Granthamala

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Page 37
________________ ग्रहण करता है उसे अशुद्ध संग्रहनय कहते है। विशेषार्थ - अपनी-अपनी जाति के अनुसार वस्तुओं का या उनकी पर्यायों का परस्पर विरोध रहित एक रूप से संग्रह करने वाले ज्ञान और वचन को संग्रहनय कहते है । जैसे'सत्' कहने से जो सत् है उन सभी का ग्रहण हो जाता है । और द्रव्य कहने से सब द्रव्यों का ग्रहण हो जाता है। जीव कहने से सब जीवों का और पुद्गल कहने से सब पुदगलों का ग्रहण हो जाता है। इनमें से जो समस्त उपाधियों से रहित शुद्ध सन्मात्र को विषय करता है वह तो शुद्ध संग्रहनय है, जैसे सेना, वन नगर आदि का ग्रहण । उसको पर संग्रह भी कहते हैं। और उसके अवान्तर किसी एक भेद को संग्रह रूप से विषय करता है वह अशुद्ध संग्रहनय या अपर संग्रहनय है । जैसे - हाथियों का समूह, आम व नारियल का समूह । व्यवहारनय के भेदों का स्वरूप जं संगहेण गहियं भेयइ अत्थं असुद्ध सुद्धं वा । सो ववहारो दुविहो असुद्धसुद्धत्थभेयकरो ||37।। यः संग्रहेण गृहीतं भिनत्ति अर्थ अशुद्धं शुद्धं वा । स व्यवहारो द्विविधोऽशुद्धशुद्धार्थभेदकरः ।।37।। अर्थ - जो संग्रहनय के द्वारा गृहीत शुद्ध अथवा अशुद्ध अर्थ का भेद करता है वह व्यवहारनय है। उसके भी दो भेद है - अशुद्ध अर्थ का भेद करने वाला और शुद्ध अर्थ का भेद करने वाला। विशेषार्थ - संग्रह नय से ग्रहण किये हुए पदार्थ को भेद रूप से व्यवहार करता है , ग्रहण करता है, वह व्यवहार नय है। जैसे जीव के मुक्त एवं संसारी इत्यादि भेद ग्रहण करना । जो सामान्यसंग्रह के द्वारा कहे गये अर्थ को | 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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