Book Title: Laghu Nayachakrama
Author(s): Devsen Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Pannalal Jain Granthamala

View full book text
Previous | Next

Page 30
________________ परम भाव ग्राहक द्रव्यार्थिकनय गिर्जाइ दव्वसहावं असुद्धसुद्धोपचारपरिचत्तं । सो परमभावगाही णायव्वो सिद्धिकामेण ||26|| गृह्णाति द्रव्यत्वभावं अशुद्धशुद्धोपचारपरित्यक्तम्। स परमभावग्राही ज्ञातव्यः सिद्धिकामेन ।।26।। अर्थ - जो अशुद्ध, शुद्ध और उपचरित स्वभाव से रहित परमस्वभाव को ग्रहण करता है वह परमभाव ग्राही द्रव्यार्थिक नय है, उसे मोक्षेच्छुक भव्य को जानना चाहिए। विशेषार्थ – यद्यपि आत्मद्रव्य संसार और मुक्तपर्यायों का आधार है तथापि आत्मद्रव्य कर्मो के बंध और मोक्ष का कारण नहीं होता है । अशुद्ध व शुद्ध पने के उपचार से रहित जो केवल द्रव्य के स्वभाव को ग्रहण करता है । वह परमभाव ग्राहक द्रव्यार्थिक नय है । अथवा, आत्मा कर्म से उत्पन्न नहीं होता और न कर्मक्षय से उत्पन्न होता है - द्रव्य के ऐसे भाव को बतलाने वाला परमभाव ग्राहक द्रव्यार्थिक नय है। पर्यायार्थिकनयों के6 भेद अनादिनित्य पर्यायार्थिक नय अक्कट्टिमा अणिहणा ससिसूराईण पज्जया गिङ्ग्इ। जो सोअणाइणिच्चो जिणभणिओपज्जयत्थिणओ।।27।। अकृत्रिमाननिधनान् शशिसूर्यादीनां पर्यायान् गृह्णाति । यः सोऽनादिनित्यो जिनभणितः पर्यायार्थिको नयः ।।27।। अर्थ - जो अकृत्रिम और अनिधन अर्थात् अनादि अनन्त चन्द्रमा | 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66