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विशेषार्थ - स्यात् अर्थात् कथंचित् या विवक्षित प्रकार से अनेकान्त रूप से वदना, वादकरना, जल्प करना, कहना, प्रतिपादन करना स्याद्वाद है। यथा-पदार्थ कथंचित् नित्य है कथंचित् अनित्य है । इस कथन से पदार्थ सर्वथा एक धर्मरूप सिद्ध नहीं होता है । स्यात् शब्द अनेकान्त का द्योतक जानना चाहिए। ग्रन्थकार कहते हैं कि जिसे नय का ज्ञान नहीं है वह स्याद्वाद पद्धति को नहीं समझ सकता है। तथा मिथ्या एकान्त का विरोध करने वाले को सम्यक् प्रकार से नय के स्वरूप जानना चाहिए।
अनेकांत का मूल नय जह सद्धाणमाई सम्मत्तं जह तवाइगुणणिलये । धाओ वा एयरसं तह णयमलो अणेयंतो ।।4।। यथा शृद्धानमादिः सम्यक्त्वं यथा तपादिगुणनिलये। धातुर्वा एकरसस्तथा नयमूलोऽनेकान्तः ।।4।।
अर्थ - जैसे शास्त्रों का मूल अकारादि वर्ण है, तप आदि गुणों के भण्डार साधु में सम्यक्त्व मूल है, धातुओं में मूल पारा है, वैसे ही अनेकान्त का मूल नय है।
विशेषार्थ - जिस प्रकार शास्त्रों का मूल अकारादि वर्ण है। क्योंकि शास्त्रों की रचना अकारादि वर्णो के ही आधार पर ही होती है, तप आदि गुणों के भण्डार साधु में सम्यकत्व है क्योंकि सम्यकत्व के बिना तप आदि गुणों की कोई उपयोगिता नहीं है । धातुओं में पारा मुख्य है क्योंकि इसी के आधार पर धातुओं का शोधन संभव है इसके बिना नहीं। ठीक इसी प्रकार अनेकान्त का मूल नय जानना चाहिए। यदि नय का समीचीन बोध नहीं होगा तो वस्तु स्वरुप का निर्णय करना अशक्य होगा।
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