Book Title: Laghu Nayachakrama
Author(s): Devsen Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Pannalal Jain Granthamala

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Page 13
________________ वस्तुस्वरूपके ज्ञान सेध्यान सिद्धि बुज्झहता जिणवयणं पच्छा णिजकज्जसंजुआ होह। अहवा तंदुलरहियं पलालसंधूणणं सव्वं ।।8।। बुध्यन्तु जिनवचनं पश्चान्निजकार्यसंयुता भवत । अथवा तंदुलरहितं पलालसन्धूननं सर्वम् ।।8।। अर्थ – भगवान् जिनेन्द्र के वचनों को जान कर पश्चात् निज कार्य में संयुक्त होना चाहिए। अन्यथा किया गया कार्य चांवल रहित पलाल (भूसा) के ग्रहण के तुल्य है। विशेषार्थ - ध्यान इच्छुक भव्य जीव को सर्वप्रथम भगवान जिनेन्द्र के वचनों के आधार पर पदार्थो के स्वरूप का समीचीन निर्णय करना चाहिए। पश्चात् ध्यान चिन्तवन आदि में युक्त होना चाहिए । अन्यथा चावल की प्राप्ति के बिना पलाल (भूसा) के ग्रहण के तुल्य उसका प्रयास समझना चाहिए । तत्त्व निर्णय के बिना मोक्ष मार्ग में प्रयाण निरर्थक है। एकान्त और अनेकान्तनय एअंतो एअणयो होइ अणेयंतमस्स सम्मूहो । तं खलु णाणवियप्पं सम्म मिच्छं च णायव्वं ।।७।। एकान्त एकनयो भवति अनेकान्तोऽस्य समूहः । स खलु ज्ञानविकल्पः सम्यमिथ्या च ज्ञातव्यः ।।9।। अर्थ – एक नय को एकान्त कहते हैं और उसके समूह को अनेकान्त कहते हैं। यह ज्ञान का भेद हैं जो सम्यक् और मिथ्या दो रूप होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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