Book Title: Laghu Nayachakrama
Author(s): Devsen Acharya, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Pannalal Jain Granthamala

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Page 14
________________ विशेषार्थ नय को एकान्त कहा जाता है क्योंकि वस्तु में विद्यमान अनेक धर्मो में से किसी एक धर्म की मुख्यतः से वह कथन करता है तथा एक धर्म का कथन करने वाला होने के एकान्त कहा जाता है । नयों के 1 समूह को अनेकान्त जानना चाहिए । नय श्रुत ज्ञान का ही भेद है । यह सम्यक् और मिथ्या के भेद से द्विधारुप समझना चाहिए । जो वस्तु में विद्यमान परस्पर विरोधी धर्मो का विरोध नहीं करते हुए, सापेक्ष रुप से कथन करता है वह सम्यक् नय या सुनय समझना चाहिए । जो वस्तु में विद्यमान अनेक धर्मो को अस्वीकार कर, मात्र एक रुप वस्तु को स्वीकार करता है, उसे दुर्नय या मिथ्या नय समझना चाहिए । - नयदृष्टि विना मिथ्यादृष्टि जे यदिठ्ठिविहीणा तेसिं ण हु वत्थुरूवउवलद्धि । वत्थुसहावविहूणा सम्माइट्ठी कहं हुंति ॥10॥ ये नयदृष्टिविहीनास्तेषां न खलु वस्तुरूपोपलब्धिः । वस्तुस्वभावविहीनाः सम्यग्दृष्टयः कथं भवन्ति ||10|| ।।10।। अर्थ - जो नयदृष्टि से विहीन है उन्हें वस्तु के स्वरुप का ज्ञान नहीं हो सकता और वस्तु के स्वरुप को न जाने वाले सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते है ? विशेषार्थ - जिन जीवों को नय के स्वरुप का समीचीन बोध नहीं हैं उन्हें वस्तु के स्वरुप का बोध नहीं हो सकता हैं । और जिन्हें वस्तु के स्वरुप का सम्यक् बोध नहीं है । वे सम्यग्दृष्टि किस प्रकार से हो सकते है अर्थात् वे सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं । Jain Education International. 7 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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