Book Title: Kashaypahud Sutra
Author(s): Gundharacharya, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 12
________________ उत्तर-यह कोई दोष की बात नहीं है। प्रारंभ किए गये कार्यों में बिन्नकारा कर्मों के विनाशार्थ मंगल किया जाता है। इस उद्देश्य की पूर्ति परमागम के उपयोग द्वारा होती है। यह बात प्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि यदि शुभ और शुद्ध भावों के द्वारा कर्मों का क्षय नहीं स्वीकार किया गया, तो अन्य उपाय द्वारा कर्मों का क्षय असंभव होगा। शंका--शुभ भाव कषायों के उसय में होते हैं। उनसे कर्मबंध ही होगा। उन्हें कर्मक्षय का हेतु क्यों कहा गया है ! उत्तर--शुभ भावों में तीन कपाय का अभाव रहता है। उनमें मैद कषाय रूप परिमति होती है। शुभ कार्यों में प्रवृत्ति होने पर अशुभ योगों का संवर होता है। संवर रूप परिणामों से कर्मों की निर्जरा मानने में कोई बाधा नहीं है। कार्तिकेयानप्रेता में कहा है, "मंद-म.सायं. धम्म” (४७०) मदतीय धर्मचाई है। पिका_स्वमुम्बहारविच बारह अनुप्रैक्षा में कहा है :सुहजोगेसु पवित्नी संघरणे कुणदि असुह-जोगस्स । सुहजोगाम गिरोहो सुद्धव जोगेण समवदि ॥ ६३ ॥ शुभ योगों में प्रवृत्ति से अशुभ योग का निरोध अर्यात् संवर होता है। शुभ योगों का निरोध शुद्ध उपयोग द्वारा सभष है। शुभ योगों में जितना निवृत्ति अंश है, उतना धर्म रूप सत्य है। जितना अंश सरागसा युक्त है, उतना पुण्य बंध का हेतु कहा गया है। शुभोपयोग परिणत प्रात्मा में भी धर्म रूप परिणत सद्भाव प्रवचनसार में बताया गया है। कुंदकुंद स्वामी ने लिखा है : धम्मेण परिणदप्पा अप्पा अदि सुद्ध-संपयोगजुदो । पावदि णिवाणासुहं सुहोवजुत्ती व सग्गसुई ॥ प्रवचनसार-११॥ जब आत्मा धर्म परिसत स्वभाव युक्त हो शुद्धोपयोग को धारण करता है, तब मोक्ष का सुख प्राप्त होता है। जब मात्मा धर्म परिणत स्वभाव युक्त हो शुभ उपयोग रूप परिस्त होता है, तब वह शुभोपयोग के द्वारा स्वर्ग सुख को प्राप्त करता है। मंगल हि कीरदे पारद्धकज्ज-विग्घयरकम्म-विरणासण। तं च परमागमुवजोगादो चेव मस्सदि । रस चेदमसिद्धः सुप्ह-सुद्धपरिमादि कामक्खयाभाव तक्खयाशुषवत्तीदो। उत्तं च दिइया बंध या उपसम-वय-भिम्पयोय माकनवरा । . भावो दु पारिएमिओ करणाभन्य-जियो होइ ॥.,जयधवला, भाग १॥

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