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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
साध्य तद्धेतुसाधितम् । प्राप्त यक्तरितद्वाक्यात साध्यमागम-साधितम।।७।। वक्ता यदि अनाप्त है, तो युक्ति द्वारा सिद्ध यात हेतु-साधित कही जायगी। यदि वक्ता प्राप्त है तो उनके कथन मात्र होने से ही बात सिद्ध होगी। इसे भागम-साधित कहते हैं।
इस 'कसायपाहुम्सुम्स' की रचना अंग-पूर्व के एक • देश हावा गुणधर आचार्य ने स्वयं की । धरसेन धाचार्य भी अंग तथा पूर्वो के एक देश के ज्ञाता थे। वे षखंडागम मूत्र की रचना स्वयं न कर पाए। उन्होंने भूतबलि तथा पुष्पदन्त मुनीन्द्रों को महाकम्मपद्धि - पाहुड का उपदेश देकर उनके द्वारा '
पखंडागम' सूत्रों का प्रणयन कराया । अतावतार कथा में लिखा है-धरसेन आचार्य को अग्रायणी पूर्व के अंतर्गत पंचम वस्तु के चतुर्थभाग महाकर्मप्राभूत का ज्ञान था। अपने निर्मल ज्ञान में उन्हें यह भासमान हुआ, कि मेरी श्रायु थोड़ी शेष रही है। यदि अतरक्षा का कोई प्रयास न किया जायगा. तो अतज्ञान का लोप हो जायगा। ऐसा विचार कर उन्होंने वसावदाकपुर में विराजमान महामहिमा - शाली मुनियों के समीप एक ब्रह्मचारी के द्वारा इम प्रकार पत्र भेजा था, "स्वस्ति श्री वेणात टाकवासी तिवरों को पर्जयन्त तद निकटस्थ चंद्रगुहानिवासी घबसेनण अभिवन्दना करके यह सूचित करता है, कि मेरी आयु अत्यन्त अल्प रह गई है। इससे मेरे हायस्थ शास्त्र की व्युच्छित्ति हो जाने की संभावना है। अतएव उसकी रक्षा के लिए आप शास्त्र के ग्रहण, धारण में समर्थ तीक्ष्ण बुद्धि दो यतोश्रो को भेज दीजिये ।" *
विशेष बात--इस कथन के प्रकाश में यह कहना होगा, कि कसायपाहुडसुत्त अंग-पूर्व के एक्रदेश के ज्ञाता गुणधर श्राचार्य को साक्षात् रचना है । षटबण्डागम की रचना में इससे भिन्न वात है। वह महान ज्ञानी धरसेन प्राचार्य की साक्षात् रचना न होकर उनके दो महान् शिष्यों को कृति है, जिसमें धरसेन स्वामी काही मगत निबद्ध है (जिसे उन्होंने गुरु परंपरा द्वारा प्राप्त किया था)। धरसेन स्वामी ने जो पत्र घणातटाकपुर के संघ नायक को भेजा था, उसय यह स्पष्ट होता है, कि आचार्य गुणधर तथा धरसेन स्वामी सहस महान ज्ञानी मुनीश्वरों का अनेक स्थानों पर सद्भाव था। संघाधिपति श्राचार्य महान् ज्ञानी रहे हों।।
ग्रन्थ की पूज्यता-यह ग्रंथ द्वादशांग वारसी का अंश रूप होने से अत्यन्त पूज्य, प्रामाणिक तथा महत्वपूर्ण है। द्वादशांगवायो
• देखिए-महाबंध की हमारी प्रस्तावना पृष्ठ ११