Book Title: Karm Vipak Pratham Karmgranth
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 5
________________ फल है अज्ञान दशा के कारण हितकारी को अहित कर और अहितकारी को हित कर समझ जीव सुख दुख भोगते हैं. . शुभ कर्मों के उदय से सुख मिलता है और अशुभ कर्मों के उदय से दुख मिलता है तो प्रश्न हो सका है कि पूर्व कर्मानुसार सुख दुख जो होना है सो निस्संदेह होही गा तो उद्यम करने की क्या आवश्यक्ता ? यह पूर्व बतला दिया है कि एकान्त में किसी वान को नहीं समझना चाहिये अतएव उद्यम भी कर्तव्य है कर्म दो प्रकार के होते हैं (१, सोपक्रम जिन कर्मों की कि ध्यान तपस्या आदि ज्ञान पूर्वक क्रियादि उद्यम से निर्जरा हो सकी है (२) निरुपक्रम (निकायश्चित) कि. जो कर्म किसी भी प्रकार से विना उनका फल भोगे नहीं छूट सक्ते हैं. शुभा शुभ कर्मों का विविध प्रकार से कैसे बंधन होता है और कैसे उनके विविध फल रूप जीवों को भवोभव में भ्रमण तथा अनेक प्रकार के सुखदुख आदि प्राप्त होते हैं तथा किसप्रकार उन कर्मों का अंत करकं कर्म रहित हो सक्ते हैं इत्यादि कर्मवाद के विषयों को समझाने के लिये ही श्रीमान् देवेन्द्रसरि महाराज ने प्राकृत भाषा में कर्म ग्रन्थ को छ: भागों में लिखा है जिनमें से कर्म विपाक नामक प्रथम भाग हिंदी भाषान्तर सहित इस पुस्तक में प्रकाशित किया गया है जिसमें कौकी आठ मूल प्रकृतियां और १५८ उत्तर प्रकृतियों का वर्णन है.

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