Book Title: Kalpsutram
Author(s): Bhadrabahuswami, 
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 11
________________ सुपरिनिदिए आविभविस्सइ॥९॥तं उराला णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठा, जाव।। आरुग्गतुहिदीहाउयमंगल्लकल्लाणकारगाणं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिद्रुत्ति कटु भुजो । भुजो अणुव्हइ ॥ १०॥तएणं सा देवाणंदा माहणी उसभदत्तस्स अंतिए एअमट्टं सुच्चा । निसम्म हद्वतुट्ठ जाव हियया जाव करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट उसभदत्तं माहणं एवं वयासी ॥११॥ एवमेयं देवाणुप्पिआ ! तहमेयं देवाणुप्पिआ! अवितहमेयं देवाणुप्पिआ! असंदिद्धमेयं देवाणुप्पिआ! इच्छियमेअं देवाणुप्पिआ! पडिच्छिअमेअं देवाणुप्पिआ! इच्छियपडिच्छियमेअंदेवाणुप्पिआ! सच्चे णं एसमढे, से जहेयं ।। तुब्भे वयहत्ति कट्ठ ते सुमिणे सम्म पडिच्छइ, पडिच्छित्ता उसभदत्तेणं माहणेणं सद्धिं । उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ ॥ १२॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया वजपाणी पुरंदरे सयुक्कऊ सहस्सक्खे मघवं पागसासणे दाहिणड्ड-|

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