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नजरिये से सोचते हैं तो वह हमारे लिए समाधान के द्वार खोलता है। अगर हम नकारात्मक नजरिये से सोचेंगे तो वही सोच चिंता बनकर हमारी अशांति का मूल कारण बन जाएगा। जैसे, आपने किसी को दो लाख रुपये ब्याज में दे रखे थे। संयोग की बात कि उस व्यक्ति ने अपना दिवाला निकाल दिया। आपको खबर लगी और आप यकायक तनाव और चिंता से ग्रस्त हो गए। किसी ग्राहक से बात करने का भी आपका मूड न रहा, अत: उस दिन का सारा व्यवसाय भी प्रभावित हो गया। आप घर पहुँचे। पत्नी ने स्वादिष्ट भोजन बना रखा था किंतु आप चिंताग्रस्त थे, इसलिए यह कहते हुए भोजन नहीं किया कि आज मेरा खाने का मूड नहीं है।' रुपये गए सो गये, सुख की रोटी भी हाथ से गई। रात भर कमरे में लेफ्ट-राइट करते रहे अथवा बिस्तर पर पड़े-पड़े करवटें बदलते रहे और नींद न ले पाए। कभी सोचते, 'मैंने रुपये दिए ही क्यों थे? पिछले महीने किसी ने कहा भी था कि यह व्यक्ति हाथ ऊँचा करने वाला है, पर मैंने उस समय ध्यान नहीं दिया। अगर मैं उस समय ही रुपए वापस ले लेता तो आज यह नौबत नहीं आती।' पत्नी ने समझाया कि रुपये के पीछे नींद हराम करने से क्या होगा? पर तुम इतने ज्यादा चिंतित हो गए कि पूरी रात ही खुली आंखों बिस्तर पर पड़े रहे। यह हुआ चिंता के कारण तीसरा नुकसान, रुपए गए सो गए, चैन की नींद भी गई। और तो और, अगले दिन सुबह तुम्हारे मित्र तुम्हारे घर आए पर तुम उनसे भी प्रेम से बात न कर पाये क्योंकि तुम चिंतित थे। परिणामस्वरूप मैत्री भी कमजोर हुई। हजार चिताओं से बदतर एक चिंता
एक चिंता हजार चिताओं से भी बदतर है। चिता एक बार जलाती है पर चिंता जिन्दगी में हजार बार जलने को मजबूर करती है। उसमें भी चिता तो मरे हुए को जलाती है पर चिंता तो जीते जी व्यक्ति को ही जला डालती है।
चिंता हमारा कोई प्राकृतिक धर्म नहीं है और न ही यह हमारा स्वभाव है। यह धीरे-धीरे कुछ निमित्तों के चलते हमारे भीतर प्रवेश करती है या यों कहें कि हमारे भीतर बीज के रूप में प्रकट होती है और धीरे-धीरे स्वस्थ व्यक्ति को भी अपने आगोश में जकड़ लेती है। सच्चाई तो यह है जो चिंता
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