Book Title: Kaise Sulzaye Man ki Ulzan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 101
________________ विश्वास रखते हैं, वे जिस समाज में जाते हैं वहाँ उसके टुकड़े कराने की ही कोशिश करते हैं। जो वाकई में संत होता है वह टूटे हुए दिलों को आपस में जोड़ता है और जो जुड़े हुए दिलों को तोड़ता है, उसे हम 'असंत' कहते हैं। भगवान ने कहा कि जो लोग विग्रह और कलह में विश्वास रखते हैं, वे पाप श्रमण होते हैं। व्यक्ति को उनसे बचना चाहिए। जो संत समाज में आपसी दूरियाँ बढ़ाने की कोशिश करते हैं, वैर-विरोध की भावना पनपाते हैं, अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए मानसिक दूरियाँ बढ़ाते हैं, वे संत नहीं होते। मैंने देखा है. चार-पांच वर्ष पहले जैन सम्प्रदाय में दो संत अलग हए थे। वे अमुक-अमुक संत की परम्परा में चले गए। मैंने देखा, पिछले तीन वर्षों में उनके विरोध की भावना को। उफ्! शायद झोंपड़पट्टी में रहने वाले लोग जिन्हें हम नासमझ कहते हैं और जिन्हें हम धर्म और बुद्धि के विवेक से हीन समझते हैं, वे भी आपस में एक दूसरे का ऐसा विरोध नहीं करते होंगे जैसा उन संतों ने एक-दूसरे का विरोध किया था। मेरे पास, कभी अमुक परम्परा के लोग आते और अपने संत की तारीफ करते, कभी दूसरी परम्परा के लोग आते और अपने संत की प्रशंसा करते। मैं उनसे कहता, 'अभी तुम्हारे संत, संत कहाँ हुए हैं ! जो लोग अपने समाज में, अपने पंथ में वैर-विरोध और कटुता की भावना का पोषण करते हैं, क्या वे लोग संत कहलाने के भी योग्य हैं? संतों के मन में भी अगर संतों के प्रति वैर और विरोध है तो फिर मैं यह पूछना चाहूँगा कि प्रेम का बसेरा कहाँ होगा? प्रेम-सरोवर सूख न पाए मैंने एक राजस्थानी कहावत पढ़ी है- 'कुत्ता लडै दांतां सूं, मूरख लडै लातां सूं और संत लड़े बातां तूं।' सभी लड़ने में मशगूल हैं। धोबी धोबी से मिलता है तो राम-राम करता है, नाई-नाई से मिलता है तो राम-राम करता है, जो भी एक दूसरे से मिलते हैं तो नमस्कार-प्रणाम करते हैं, मगर दुर्भाग्य यह है कि अगर संत संत से मिलता है तो वह हाथ भी जोड़ने को तैयार नहीं होता। सोचें, वस्त्र बदलकर साधु तो हो गए हैं पर क्या मन से भी साधु हो पाए हैं? जिसके मन में कठोरता, कटुता, कलह और संघर्ष की भावना रहती है उसके चित्त में कभी किसी के प्रति प्रेम नहीं होता। उसके प्रेम के सरोवर का 92 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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