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कि वाकई आप ईमानदार हैं। याद रखें, आप रिश्वत लेकर पत्नी के हाथों में हीरे की चूड़ियाँ पहना सकते हैं। आपके हाथों में इस जुल्म के कारण कभी हथकड़ियाँ आ गयी तो क्या करोगे।
आज के युग में हरिश्चन्द्र की कथा वांचने की जरूरत नहीं है, जरूरत तो हरिश्चन्द्र के आदर्श को जीने की है। जीवन की मर्यादा लाओ, जीवन का बांध बनाओ, जीवन की सीमाएं बनाओ कि आप कहाँ, किस तरह उसे जीएंगे। जीवन को अनासक्तिपूर्वक जीने की व्यवस्था बनाई जाए। व्यक्ति संसार में रहे, संसार की धारा में रहे, संसार के साथ रहे लेकिन संसार के साथ बहे नहीं। उसके मन में संयम और मर्यादा के प्रति श्रद्धा हो। उसे विवेक रहे कि वह संसार में रहकर भी संसार की धारा में अनासक्त जीवन जीएगा। रात को देखे जाने वाले स्वप्न आँख खुलते ही टूट जाते हैं। दिन के स्वप्न भी तब टूट जाते हैं जब आँख बंद हो जाती है। सपनों के संसार में कैसी तृष्णा, वासना, विलासिता और कामना! । खंडों में भी अखंडता
भारतीय परम्परा में जीवन जीने की व्यवस्था दी गई है। केवल अर्थोपार्जन की व्यवस्था नहीं, केवल कामसेवन की व्यवस्था नहीं, केवल दुनियादारी की व्यवस्था नहीं है बल्कि पूरे जीवन की व्यवस्था की गई है। जीवन का एक भाग शिक्षा-दीक्षा के लिए, दूसरा भाग धनोपार्जन, परिवार के पालन-पोषण और बच्चों की परवरिश के लिए. जीवन का तीसरे भाग घर में रहते हुए भी अनासक्त जीवन जीने के लिए और चौथा भाग मुक्ति और संन्यास के लिए है। इतिहास गवाह है कि जिन सम्राटों ने बुढापे की दहलीज पर आकर अपनी इच्छा से राजसिंहासन का त्याग करके वनवास ग्रहण किया, उन्होंने अपने बुढ़ापे को सुखी किया और जिन्होंने सत्ता की लिप्सा के चलते राजसिंहासन का त्याग नहीं किया वे अपनी ही संतानों के द्वारा या तो मारे गए या उन्होंने नानाविध यंत्रणाएँ भोगी। जो बुढ़ापे की दहलीज पर पहुँचकर भी अपनी मुक्ति को साधने का प्रयास नहीं करता वह फिर कब मुक्ति का प्रयास करेगा?
कहते हैं- राजा दशरथ आईने के सामने खड़े अपना चेहरा निहार रहे
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