Book Title: Kaise Sulzaye Man ki Ulzan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 141
________________ वास्तविक प्रभावना वह है जहाँ व्यक्ति हमारे अच्छे चाल-चलन, आचारविचार और व्यवहार से प्रभावित हो जाए। दूसरा व्यक्ति तुम्हारे निर्मल आचरण को देखकर खुद भी निर्मल आचरण से जीने का संकल्प करे - यह है प्रभावना - नैतिक आचरण की प्रभावना। कहकर करवाने की बजाय स्वयं का उदाहरण प्रस्तुत करें कि दूसरे भी स्वप्रेरणा से बेहतर आचरण करने लगें। भाषा में सुई हो, मगर धागे वाली दूसरी मर्यादा है भाषा की। अगर आप ठीक ढंग से, सलीके से अपनी बात नहीं कह सकते हैं तो कृपया चुप रहिए। एक व्यक्ति चार वर्ष की उम्र से ही बोलना सीख जाता है लेकिन वही चालीस साल तक बोलकर भी चुप रहना नहीं सीख पाता। चार घंटे लगातार बोलना सरल होता है पर चालीस मिनिट मौन रहना बहुत कठिन लगता है। बोलना अगर चाँदी है तो चुप रहना सोना है। हमारे यहाँ पांच समितियों का जिक्र आता है जिसमें एक है भाषा समिति । अपनी वाणी का विवेकपूर्वक उपयोग करना भी धर्म है। अगर आप अविवेक से गाली-गलौज के साथ भाषा का प्रयोग करते हैं, भले ही आप सामायिक-पूजा ही क्यों न करते हों, पर यह अधर्म है। हाँ, अगर आप विवेकपूर्वक, सलीके से भाषा का उच्चारण कर रहे हैं, वाणी का प्रयोग कर रहे हैं तो यह भी धर्म है। वाणी में सूई भले ही रखें पर उसमें धागा डालकर रखो ताकि सुई केवल छेद ही न करे, वह आपसे दूसरे को जोड़कर भी रखे। कब, कहाँ बोलना, कितना बोलना इसका भी आपको विवेक हो। महाभारत का युद्ध न तो दुःशासन, न दुर्योधन, न भीष्म, न धृतराष्ट्र और न ही युधिष्ठिर के कारण लड़ा गया बल्कि भाषा समिति का उपयोग न करने के कारण महाभारत का युद्ध हुआ। द्रौपदी ने दुर्योधन से कहा था कि अंधे के बच्चे अंधे ही होते हैं तो इतनी सी बात ने दुर्योधन के मन को बिगाड़ दिया और उसका परिणाम द्रौपदी के चीरहरण में बदल गया। अपनी भाषा पर अंकुश रखें। ज्यादा बोलने से न बोलना ही अच्छा होता है। ज्यादा बोलने वाला कभी फँस भी सकता है, लेकिन कम बोलने वाला कई उलझनों से बचा रहता है। ज्यादा बोलने वाले को 'सॉरी' भी कहना पड़ता है लेकिन कम 132 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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