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उचित-अनुचित का निर्णय नहीं कर पाते हैं। याद रखें क्रोध का तूफान आपके दिमाग के दीपक की लौ को बुझा देता है।
किसी से माफी मांगकर या किसी को माफ कर आप उसके प्रति कोई उपकार नहीं करते। अपितु स्वयं पर ही उपकार करते हैं क्योंकि आप बदले की भावना और वैर विरोध जैसे नकारात्मक भावों से मुक्त होकर शांत और प्रसन्न होते हैं। . त्याग तभी जब त्यागा अहम्
प्रतिशोध को हटाने का तीसरा उपाय है - अहंकार का समापन। अगर आपके भीतर 'मैं' का भाव है, तो कृपया उसे निकाल दें वैसे ही जैसे आप पांव में गड़े हुए कांटे को निकालते हैं। आप सभी बुद्धत्व की राह के राही हैं और इस मार्ग पर चलने की पहली सीढ़ी ही अहंकार का त्याग है। आपने सब कुछ त्याग दिया पर अहंकार को न त्याग सके तो आपके सभी त्याग व्यर्थ हैं।
आप सबका सम्मान करें । एक व्यक्ति पत्नी से झगड़ा करके गुस्से से भरा हुआ किसी संत की कुटिया के पास पहुँचा। उसने वहाँ धक्का मारकर धड़ाम से दरवाजा खोला, जूते खोले और जाकर गुरु को प्रणाम किया और बोला- 'मुझे शांति का पाठ पढ़ाओ।' गुरु ने कहा- 'शांति और अशांति की बात बाद में करेंगे। पहले तुम जाकर उस दरवाजे से माफी मांगो, अपने जूतों से माफी मांगकर आओ।' उसने कहा - 'क्या मतलब? दरवाजे और जूतों से माफी मांगने का क्या तुक?' संत ने कहा- 'तुमने अभद्रता से दरवाजा खोला है और बेरहमी से जूते खोले हैं इसलिए दोनों से माफी मांगो, फिर आगे कोई बात करेंगे।' _ अगर व्यक्ति शांति चाहता है तो सबका सम्मान करे, हिंसा का बहिष्कार करे, दूसरों के कार्यों में सहयोग दे, बंधुत्व के भाव का स्वयं में संचार करे और समय-असमय दूसरों के काम आए।
हम सभी प्रेम की दहलीज पर आए हैं, तो प्रेम से जिएँ, प्रेम का आचमन करें। यदि प्रेम में जीकर देखेंगे तो पता चलेगा कि प्रेम ने हमें क्याक्या दिया है।
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